Monday, September 12, 2011

नायक तलाशता भारत

अन्ना हजारे का रामलीला मैदान में चल रहा अनशन खत्म तो हुआ, लेकिन वह कई सवाल भी छोड़ गया है। इस अनशन के दौरान मैं अन्ना हूं लिखी गांधीटोपी भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान की पहचान बन गई, और अन्ना उसके नायक। आखिर अन्ना को यह नायकत्व मिला कैसे, जबकि एक सर्वेक्षण के अनुसार जंतर-मंतर पर अनशन से पहले देश में लोग बाबा रामदेव के मुकाबले अन्ना के बारे में कम जानते थे। लेकिन, रविवार की कड़ी धूप वाली सुबह जब अन्ना हजारे ने सिमरन और इकरा, दो बच्चियों के हाथों अनशन तोड़ा तो मैदान में तिल रखने की जगह नहीं थी। 

कड़ी धूप में बेहाल दो दर्जन से ज्यादा लोग गश खाकर गिरे, लेकिन जन-सैलाब थमा नहीं। आखिर, अन्ना ने ऐसा क्या किया कि इतने लोगों का समर्थन उन्हें मिला?

जन-जन की उम्मीद बने अन्ना

दरअसल, अन्ना के आंदोलन ने जनता की आंखों में एक उम्मीद बो दी। इन आँखों में भ्रष्टाचारमुक्त समाज का सपना तैरने लगा। लहराते तिरंगों, भारतमाता की जय और वन्दे मातरम् के उद्घोष ने अन्ना के अखिल भारतीय नायकत्व को पुष्ट कर दिया।

अनशन के दौरान नारों और मीडिया ने उन्हें देश का दूसरा गांधी घोषित कर दिया। वस्तुतः, भारत के लिए नए नायक बने अन्ना हजारे के पास इसकी पूरी तैयारी थी। विज्ञापन प्रबंधन की भाषा में, अन्ना ने भ्रष्टाचार पर ध्यान केंद्रित कर पूरे मध्य वर्ग को अपने साथ कर लिया। मध्यवर्ग के तमाशाई स्वभाव, भीतर के गिल्ट और कॉरपोरेट मीडिया ने उसे रोड पर उतार कर हाथ में मोमबत्तियां थमा दीं।
अन्ना के नायकत्व के पीछे कई स्थापनाएं दी जा सकती हैं। पहली तो यही कि, हाल के वर्षों में मंहगाई के अतिरेक से निम्न और मध्य वर्ग असंतुष्ट था। स्थापित राजसत्ता के प्रति असंतोष तो आमतौर पर चुनाव में भी दिखता है। गैस, बिजली, दूध, पेट्रोल की कीमतों से जूझती जनता ने भ्रष्टाचार को मुद्दा माना, हालांकि किसी भी दल ने भ्रष्टाचार को इस पैमाने पर जनता के सामने रखा नहीं था। 
हर दौर में जनता को चाहिए होता है अपना हीरो


किसी चीज को हासिल करने या किसी बड़े बदलाव अथवा प्रतिरोध का माहौल बनाने की खातिर हम नायक तलाशते हैं। अवाम को हमेशा एक रोल मॉडल चाहिए। वह अपनी आस्था को टिकाने के लिए स्थान ढूंढ़ता है। इसी प्रक्रिया के तहत देवता अस्तित्व में आए। आदमी ने देवता को रचा। वहाँ आश्रय ढूंढ़ा। राम नायक। कृष्ण नायक। ऐसा नायक जिसमें कोई कमी नहीं। सर्व गुण संपन्न। हमेशा जीत हासिल करने वाला। मगर यह पराजित होते मनुष्यों का दौर है। आज किसी भी क्षेत्रा में असल नायक नहीं है। अवाम को लगता है कि भारत खलनायकों से भरा है।

यह भारतीय मानसिकता ही है जो हमेशा नायक की तलाश करता है। उसके अवचेतन में अवतारवाद है- एक ऐसा ईश्वर या नायक जो चमत्कार करता है।

कुछ साल पीछे चलें तो बोफोर्स घोटाले के बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह ने कांग्रेस के खिलाफ अभियान छेड़ दिया था। उस वक्त उन्हें भी जनता ने नायक का दर्जा दिया था और उन्हें सत्ता भी सौंपी। ये बात और है कि राजा मांडा राजनैतिक रुप से उस बढ़त को समेटकर रख  नहीं पाए।

उत्सवधर्मी भारत के मिजाज को समझना मुश्किल है। वह अलग-अलग विधाओं से अपने नायक चुनता रहा है, कभी उसने अपना हीरो विश्वकप जीतने वाले महेन्द्र सिंह धोनी में दिखता रहा, जिनका आत्मविश्वास से भरा मैचजिताऊ छक्का हाल तक ( चार टेस्ट मैच हारने तक) भारतीय गौरव का प्रतीक बना रहा। कभी महान क्रिकेटर तेन्दुलकर तो कभी सहवाग नायक बनते रहे।

वीपी से पहले राजीव गांधी थे, जिन्होंने राजनीति में पदार्पण तो हीरो तरह ही किया, जनता शुरु में उनसे हीरो की तरह बर्ताव करती रही, और इंदिरा लहर के नाम पर राजीव ऐतिहासिक बहुमत से जीते। लेकिन जल्दी ही उनकी मिस्टर क्लीन की छवि छीजती चली गई।

इसी रामलीला मैदान में जहां, अन्ना के अनशन ने लाखों लोगों को मैं अन्ना हूं कहने को प्रेरित किया, वहीं जयप्रकाश नारायण ने सिंहासन खाली करो कि जनता आती है की हुंकार भरी थी। जेपी संपूर्ण क्रांति और इमरजेन्सी के गहन विरोध के कारण जनता के हीरो बने और बने हुए हैं।

राजनैतिक शख्सियतों में गांधी पटेल और नेहरु भी नायकों जैसी हैसियत रखते हैं। आजादी के आंदोलन के दौरान जनता इनमें करिश्माई छवि देखती थी। गांधी बाबा तो मसीहा और अवतार माने जाने लगे।

आजादी के बाद के रियलिटी चैक वाले दौर में जनता ने अमिताभ बच्चन को अपना नायक माना। अमिताभ बच्चन गुस्सेवर नौजवान के रुप में देश की जनता के गुस्से को जंजीर से इंकलाब तक परदे पर साकार करते रहे।

उदारीकरण के बाद पाकिस्तान से कड़वाहट और उग्र-राष्ट्रवाद के दौर में मिसाइलमैन एपीजे अब्दुल कलाम को जनता नायक मानती रही। लेकिन, उनके राष्ट्रपति पद से अवकाश के बाद जनता एक नायक की तलाश कर रही थी, जिससे एक चमत्कार की उम्मीद की जा सके। 
हीरो मिलने पर भड़कती है देशभक्ति की भावनाएं


परदे पर स्टीरियोटाइप नायक की कमी भी जनता को खल रही थी, क्योंकि ज्यादातर अभिनेता या तो कॉमिडी कर रहे थे या फिर चॉकेलटी रोमांस। ऐसे में दबंग, रेडी और वॉन्टेड में सलमान खान ने नायकत्व को फिर से परदे पर जिंदा किया, और जनता ने उन्हें स्वीकार भी किया।

लोगों में मंहगाई, बेरोजगारी और विभिन्न मुद्दों पर गुस्सा था ही, मधु कोड़ा से लेकर राजा तक, राष्ट्रमंडल खेल से लेकर टू-जी तक, एक असंतोष और ठगे जाने के अहसास भी था जिसने समाज में एक नायक की जरुरत पैदा की। भट्टा-पारसौल जैसे मसले पर राहुल गांधी ने हस्तक्षेप जरुर किया, लेकिन नायक का रुतबा हासिल नहीं कर पाए। अन्ना ने सही वक्त पर सही तार छेड़ दिया, और उनको जनता ने नायक बनाकर सिर-आँखों पर बिठाया। आखिर, नायकत्व के लिए सादगी और त्याग दोनों की जरुरत होती है, जनता का मूड भांपने की भी।

 ( मेरा यह आलेख दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित हुआ था)

2 comments:

Rahul Singh said...

बढि़या, प्रासंगिक विश्‍लेषण.

shanti deep said...

हमेशा की तरह शानदार है और प्रासंगिक भी है.....