नरेन्द्र मोदी अपने राजनैतिक उपवास पर बैठें हैं। गुजरात में उनकी राजनीति चमक रही है, सफेदी की चमकार से वह बीजेपी के दूसरे नेताओं को चमत्कृत कर रहे हैं। तीन दिनों का उनका उपवास उनके प्रायश्चित के रुप में देखा जाना चाहिए, या प्रधानमंत्री की कुरसी तक के लॉन्च-पैड के रुप में, इस पर गहन विश्लेषण करना होगा।
प्रश्न यह भी है कि मोदीत्व को क्या बीजेपी ने एक राजनीतिक दर्शन के रुप में स्वीकार कर लिया है? ऐसी परिस्थिति में जब अटल बिहारी वाजपेयी राजनीतिज्ञ के तौर पर सन्यास ले चुके हैं, और आडवाणी का कद लगातार छीज रहा है, सुषमा और जेटली पर बढ़त बनाने के लिए मोदी का यह दांव सामने आया है। वह भी तब जब सुप्रीम कोर्ट ने दंगे के एक मामले की जांच के लिए इनकार करते हुए इसे निचली अदालत को ही निबटाने को कहा। मोदी एंड कंपनी इसे अपने लिए क्लीन चिट मान रही है, इसके बाद ही उपवास का फ़ैसला सामने आया।
अपने उग्र हिंदुत्व के लिए मशहूर (बदनाम) मोदी के इस उपवास के मकसद को राजनैतिक बताया जा रहा है। हालांकि मुख्यमंत्री मोदी इन आरोपों से विचलित नहीं दिखाई दिए और बात बात पर गुजरात के विकास की दुहाई देते रहे। इन तीन दिनों में टीवी चैनलों के साथ इंटरव्यू में उन्होंने बार बार यही कहा कि लोग गुज़रात में हो रहे विकास पर ध्यान नहीं दे रहे हैं। हमारे कई पत्रकार मित्रों को भी ऐसा ही लगता है।
डीडी न्यूज़ में वरिष्ठ राजनैतिक संवाददाता और मेरे सहयोगी संदीप झा ने मोदी के विकास पुरुष की छवि पाने की कोशिशों पर अपने फेसबुक अपडेट में लंबा-सा नोट लिखा है। झा लिखते हैं, "नरेंद्र मोदी के उपवास का मकसद राजनीतिक है। इसमें कोई शक नहीं। लेकिन क्या इससे पहले इस देश में राजनीतिक मकसद से उपवास या अनशन नहीं किया गया ? क्या किसी विकासशील देश में जो , जो देश राष्ट्रनिर्माण की प्रक्रिया से गुजर रहा है, वहाँ राजनीति को अप्रसांगिक मान लिया जाए ? क्या किसी राजनेता को अपना आधार व्यापक करने का अधिकार नहीं है ? क्या सामाजिक सुधार और आर्थिक सुदृढ़ता के लिए राजनीति प्रस्थान बिंदु नहीं है ?"
निश्चित रुप से विकास के तमाम मॉडलो के लिए राजनीति से ही रास्ता खुलता है। संदीप अपने लेखांश में इस बात पर ज़ोर देते हैं कि नरेन्द्र मोदी ने विकास के रास्ते को चुना है और अपने कद को बढाने के लिए ऐसे राजनैतिक स्टंट करना कोई गलत बात नही। संदीप आगे कहते हैं, "नरेंद्र मोदी के उपवास पऱ जो लोग हाय-तौबा मचा रहे हैं, उन्हें राहुल गाँधी की नौटंकी और सोनिया गाँधी का दोमुंहापन नहीं दीखता। उस वक्त बोलती बंद हो जाती है, या संविधान का अनुच्छेद 19 क काल कवलित हो जाता है। नरेंद्र मोदी ने गुजरात में जो काम किया, कांग्रेस की सरकार ने पिछले पचास साल में देश में तो छोड़िए अपनी बपौती कही जाने वाले संसदीय क्षेत्र रायबरेली अमेठी और सुल्तानपुर में भी किया होता तो बात समझ में आती। अगर राहुल बेबी जैसे नौसिखिए को राष्ट्र की राजनीति में प्रधानमंत्री पद का स्वभाविक उम्मीदवार मान लिया जा रहा है तो नरेंद्र मोदी ने तो अपनी काबिलियत साबित की है"
निश्चित तौर पर मोदी प्रशासनिक तौर पर एक काबिल नेता हैं। गुजरात का आर्थिक विकास भी हुआ है। लेकिन क्या सिर्फ यही बात उन्हें देश का प्रधानमंत्री बनने के योग्य बना देता है? क्या भारत के आगे के सभी प्रधानमंत्री बिजली सड़क पानी के मुद्दे पर काम करने लायक लोगों में ही चुने जाएँगे। और एऩडीए का समीकरण मोदी के पक्ष में ज्यादा जुटेगा या नीतीश के पक्ष में।
नीतीश पर बाद में बात पहले मोदी की करें। हिंदुत्ववादी मीडिया ने एक विचारक के तौर पर उनको पेश करने की कोशिश की है। यानी उग्र हिंदुत्व की उनकी टेक को मोदीत्व का नाम दिया गया। गुजरात में केशुभाई पटेल और शंकर सिंह बाघेला के बीच झगड़े की जड़ मोदी ही बताए जाते हैं।
इन्ही मोदी की वजह से बाघेला को-जिन्होंने आरएसएस और बीजेपी की जड़े गुजरात में जमाने में अहम भूमिकी निभाई थी- को बीजेपी छोड़नी पड़ी। तब मोदी के हिमाचल भेजा गया जहां ये पुनः प्रेम कुमार धूमल और शांता कुमार के बीच युद्ध के सू्त्रधार बने।
अपने मुख्यमंत्री बनने तक मोदी संघ के प्रचारक थे। उन्हें कुछ ऐसे ही लाया गया था जैसे उत्तर प्रदेश में रामबाबू गुप्ता, मध्य प्रदेश में बाबू लाल गौड़, और दिल्ली में सुषमा स्वराज लाई गई थीं। मोदी के मोदीत्व के लिए उनकी विचारधारा को जिम्मेवार बताया जाता है। लेकिन, दंगों के दौरान उनके कार्यकलाप साबित करते हैं कि गोधरा की घटना को उन्होंने न सिर्फ एक मौके के तौर पर लिया। और रातों-रात कथित तौर पर हिंदू हृदय सम्राट हो गए। गुजरात अस्मिता के नाम पर मोदी ने अपनी दुकान खड़ी की। विचारधारा के अंदर अगर मोदी होते तो गुजरात में आरएसएस को कमजोर नहीं बनाते।
मोदी ने गुजरात बीजेपी में भी विकल्पहीनता की स्थिति पैदा कर दी है। संगठन निष्ठा को मोदी-निष्ठा ने रिप्लेस कर दिया है। मोदी के खिलाफ सोचने वाले हरेन पांड्या बन गए।
अब मोदी में प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब जागा है। कुछ उसी तरह जैसे कुछ पहले आडवाणी में जागा था। लेकिन इसके लिए उन्हे अपनी छवि को नील-टिनोपॉल से धोकर चमकदार बनाना होगा। जाहिर है, मोदी अपनी छवि बनाने के लिए उपवास वगैरह कर रहे हैं। लेकिन, अब वे प्रचारक और विचारक तो नहीं रहे। ऐसे में मोदीत्व शुद्ध फासीवादी रवैये के सिवा और क्या कहा जा सकता है, जहां उनका पितृ-संगठन आरएसएस भी ठगा हुआ महसूस कर रहा है।
रही बात उनके विकास पुरुष होने की...दावे चाहे जितना करें। नीतीश उनके सामने प्रबल दावेदार के रुप में सामने आएँगे। नीतीश ने मोदी के उपवास पर कोई टिप्पणी नहीं करके अपनी मंशा जता भी दी है। वो सब...अगली पोस्ट में।.
प्रश्न यह भी है कि मोदीत्व को क्या बीजेपी ने एक राजनीतिक दर्शन के रुप में स्वीकार कर लिया है? ऐसी परिस्थिति में जब अटल बिहारी वाजपेयी राजनीतिज्ञ के तौर पर सन्यास ले चुके हैं, और आडवाणी का कद लगातार छीज रहा है, सुषमा और जेटली पर बढ़त बनाने के लिए मोदी का यह दांव सामने आया है। वह भी तब जब सुप्रीम कोर्ट ने दंगे के एक मामले की जांच के लिए इनकार करते हुए इसे निचली अदालत को ही निबटाने को कहा। मोदी एंड कंपनी इसे अपने लिए क्लीन चिट मान रही है, इसके बाद ही उपवास का फ़ैसला सामने आया।
अपने उग्र हिंदुत्व के लिए मशहूर (बदनाम) मोदी के इस उपवास के मकसद को राजनैतिक बताया जा रहा है। हालांकि मुख्यमंत्री मोदी इन आरोपों से विचलित नहीं दिखाई दिए और बात बात पर गुजरात के विकास की दुहाई देते रहे। इन तीन दिनों में टीवी चैनलों के साथ इंटरव्यू में उन्होंने बार बार यही कहा कि लोग गुज़रात में हो रहे विकास पर ध्यान नहीं दे रहे हैं। हमारे कई पत्रकार मित्रों को भी ऐसा ही लगता है।
डीडी न्यूज़ में वरिष्ठ राजनैतिक संवाददाता और मेरे सहयोगी संदीप झा ने मोदी के विकास पुरुष की छवि पाने की कोशिशों पर अपने फेसबुक अपडेट में लंबा-सा नोट लिखा है। झा लिखते हैं, "नरेंद्र मोदी के उपवास का मकसद राजनीतिक है। इसमें कोई शक नहीं। लेकिन क्या इससे पहले इस देश में राजनीतिक मकसद से उपवास या अनशन नहीं किया गया ? क्या किसी विकासशील देश में जो , जो देश राष्ट्रनिर्माण की प्रक्रिया से गुजर रहा है, वहाँ राजनीति को अप्रसांगिक मान लिया जाए ? क्या किसी राजनेता को अपना आधार व्यापक करने का अधिकार नहीं है ? क्या सामाजिक सुधार और आर्थिक सुदृढ़ता के लिए राजनीति प्रस्थान बिंदु नहीं है ?"
निश्चित रुप से विकास के तमाम मॉडलो के लिए राजनीति से ही रास्ता खुलता है। संदीप अपने लेखांश में इस बात पर ज़ोर देते हैं कि नरेन्द्र मोदी ने विकास के रास्ते को चुना है और अपने कद को बढाने के लिए ऐसे राजनैतिक स्टंट करना कोई गलत बात नही। संदीप आगे कहते हैं, "नरेंद्र मोदी के उपवास पऱ जो लोग हाय-तौबा मचा रहे हैं, उन्हें राहुल गाँधी की नौटंकी और सोनिया गाँधी का दोमुंहापन नहीं दीखता। उस वक्त बोलती बंद हो जाती है, या संविधान का अनुच्छेद 19 क काल कवलित हो जाता है। नरेंद्र मोदी ने गुजरात में जो काम किया, कांग्रेस की सरकार ने पिछले पचास साल में देश में तो छोड़िए अपनी बपौती कही जाने वाले संसदीय क्षेत्र रायबरेली अमेठी और सुल्तानपुर में भी किया होता तो बात समझ में आती। अगर राहुल बेबी जैसे नौसिखिए को राष्ट्र की राजनीति में प्रधानमंत्री पद का स्वभाविक उम्मीदवार मान लिया जा रहा है तो नरेंद्र मोदी ने तो अपनी काबिलियत साबित की है"
निश्चित तौर पर मोदी प्रशासनिक तौर पर एक काबिल नेता हैं। गुजरात का आर्थिक विकास भी हुआ है। लेकिन क्या सिर्फ यही बात उन्हें देश का प्रधानमंत्री बनने के योग्य बना देता है? क्या भारत के आगे के सभी प्रधानमंत्री बिजली सड़क पानी के मुद्दे पर काम करने लायक लोगों में ही चुने जाएँगे। और एऩडीए का समीकरण मोदी के पक्ष में ज्यादा जुटेगा या नीतीश के पक्ष में।
नीतीश पर बाद में बात पहले मोदी की करें। हिंदुत्ववादी मीडिया ने एक विचारक के तौर पर उनको पेश करने की कोशिश की है। यानी उग्र हिंदुत्व की उनकी टेक को मोदीत्व का नाम दिया गया। गुजरात में केशुभाई पटेल और शंकर सिंह बाघेला के बीच झगड़े की जड़ मोदी ही बताए जाते हैं।
इन्ही मोदी की वजह से बाघेला को-जिन्होंने आरएसएस और बीजेपी की जड़े गुजरात में जमाने में अहम भूमिकी निभाई थी- को बीजेपी छोड़नी पड़ी। तब मोदी के हिमाचल भेजा गया जहां ये पुनः प्रेम कुमार धूमल और शांता कुमार के बीच युद्ध के सू्त्रधार बने।
अपने मुख्यमंत्री बनने तक मोदी संघ के प्रचारक थे। उन्हें कुछ ऐसे ही लाया गया था जैसे उत्तर प्रदेश में रामबाबू गुप्ता, मध्य प्रदेश में बाबू लाल गौड़, और दिल्ली में सुषमा स्वराज लाई गई थीं। मोदी के मोदीत्व के लिए उनकी विचारधारा को जिम्मेवार बताया जाता है। लेकिन, दंगों के दौरान उनके कार्यकलाप साबित करते हैं कि गोधरा की घटना को उन्होंने न सिर्फ एक मौके के तौर पर लिया। और रातों-रात कथित तौर पर हिंदू हृदय सम्राट हो गए। गुजरात अस्मिता के नाम पर मोदी ने अपनी दुकान खड़ी की। विचारधारा के अंदर अगर मोदी होते तो गुजरात में आरएसएस को कमजोर नहीं बनाते।
मोदी ने गुजरात बीजेपी में भी विकल्पहीनता की स्थिति पैदा कर दी है। संगठन निष्ठा को मोदी-निष्ठा ने रिप्लेस कर दिया है। मोदी के खिलाफ सोचने वाले हरेन पांड्या बन गए।
अब मोदी में प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब जागा है। कुछ उसी तरह जैसे कुछ पहले आडवाणी में जागा था। लेकिन इसके लिए उन्हे अपनी छवि को नील-टिनोपॉल से धोकर चमकदार बनाना होगा। जाहिर है, मोदी अपनी छवि बनाने के लिए उपवास वगैरह कर रहे हैं। लेकिन, अब वे प्रचारक और विचारक तो नहीं रहे। ऐसे में मोदीत्व शुद्ध फासीवादी रवैये के सिवा और क्या कहा जा सकता है, जहां उनका पितृ-संगठन आरएसएस भी ठगा हुआ महसूस कर रहा है।
रही बात उनके विकास पुरुष होने की...दावे चाहे जितना करें। नीतीश उनके सामने प्रबल दावेदार के रुप में सामने आएँगे। नीतीश ने मोदी के उपवास पर कोई टिप्पणी नहीं करके अपनी मंशा जता भी दी है। वो सब...अगली पोस्ट में।.
4 comments:
@अपनी बपौती कही जाने वाले संसदीय क्षेत्र रायबरेली अमेठी और सुल्तानपुर में भी किया होता तो बात समझ में आती। अगर राहुल बेबी जैसे नौसिखिए को राष्ट्र की राजनीति में प्रधानमंत्री पद का स्वभाविक उम्मीदवार मान लिया जा रहा है तो नरेंद्र मोदी ने तो अपनी काबिलियत साबित की है"
संदीप झा के बोल्ड अक्षरों से सहमत हूँ..
बहुत ही संतुलित लिखा गया है लेकिन संदीप झा जी की बात भी कम मायने नहीं रखती है गुरुदेव, चाहे कुछ भी कहा जाए लेकिन अभी आप नितीश को नरेन्द्र मोदी की बराबरी में नहं खड़ा कर सकते हैं, अगर बात सिर्फ नेतृत्व की है तो निश्चित रूप से मोदी अच्छा नेतृत्व कर रहे हैं, वरना इतने दंगों के बाद भी मुस्लिम समुदाय वहां क्यों रहता, गुजरात में विकास की सतत प्रक्रिया अभी भी जारी है को मोदी को बाबा पार्टी से कहीं आगे ले जाती है बाकी हो तो वही सब रहा है जो राजनीति में अभी तक होता आया है.....
"निश्चित तौर पर मोदी प्रशासनिक तौर पर एक काबिल नेता हैं।" आपकी इस लाइन में तथ्यपरकता का अभाव साफ झलकता है। खुद उनकी ही पार्टी के महापुरुष अटल बिहारी वाजपेयी उन्हें राजधर्म निभाने की सलाह दे चुके हैं। 2002 के दंगा पीड़ितों का मामला मजबूरन सुप्रीम कोर्ट को देखना पड़ रहा है, ऐसे में आपका सर्टिफिकेट तथ्यों के मुताबिक नही जान पड़ता।
बिलकुल दाग धोना होगा वैसे ही जेसे इन्दरा गाँधी ने कई लोगो पर गोलिया चलवाई ,कांग्रेस ने राज बाला को मार डाला पर कांग्रेस के दाग तो अपने आप ही धुल जाते है
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