Tuesday, December 27, 2011

मंगल ठाकुर की मैथिली कविता

धानक फुनगी पर मकड़ा के जाली,
जाली में ओसक बून्द,
चमचम चमकै ओसक जाली,
वसुधा ओढ़ने छथि मोतिक चून
ताहि बगल में छोट-छिन डबरा
डबरा में पोठिया के झुंड

डबरा में ठाढ़ भेलि कुमुदिनी लजायल,
सूर्यसन पुरुष के देखितहिं कुमुदनी
लाजे लेलन्हि अपन आंखि मूंदि

कासक  पुष्प, 
सेहो ओघांयल सन
नींदक मातल सन,
भोरक भकुआयल सन
लागल जेना कुमुदिनी के लेता चुमि

इ छैक मिथिला के भोरका सुंदरता
एकरा नजरि ककरो नहिं लागै





हिंदी अनुवादः मंजीत ठाकुर

धान की फुनगी पर,
मकड़े की जाली,
जालों पर शबनम की बूंद...
खेत के पास
छोटा-सा डबरा...
डबरे में खेलती पोठि मछलियों के झुंड...

वहीं खड़ी थी कुमुदिनी लजाई,
सूरज-से प्रिय देख,
आंखें लीं मूंद...

कास के फूल, वो भी अघाए-से,
निंदाया-भकुआया, अल्लसुब्बह लगा कि लेगा
लाज से लाल कुमुदिनी को चूम

(डबरा-पोखरा, पोठी-मछलियों की एक प्रजाति, कास-बरसात के अंत में खिलने वाला घास का एक फूल)

1 comment:

Rahul Singh said...

क्‍या खूब नजर है.