मेरे सुपुत्र का एडमिशन स्कूल में हो गया। यह एडमिशन का मिशन मेरे लिए कितना कष्टकारी रहा, वह सिर्फ मैं जानता हूं। इसलिए नहीं कि बेटे का दाखिला नहीं हो रहा था..बल्कि इसलिए क्योंकि एडमिशन से पहले इंटरव्यू की कवायद में मुझे फिर से उन अंग्रेजी कविताओं-राइम्स-की किताबें पढ़नीं पड़ी, जो हमारे टाइम्स (राइम्स से रिद्म मिलाने के गर्ज से, पढ़ें वक्त) में हमने कभी सुनी भी न थीं।
अंग्रेजी स्कूलों से निकले हमारे साथी जरुर -बा बा ब्लैक शीप, हम्प्टी-डम्प्टी और चब्बी चिक्स जानते होंगे, लेकिन बिहार और बाकी के राज्य सरकारों के स्टेट बोर्ड से निकले मित्र जरुर इस बात से सहमत होंगे कि घरेलू स्तर पर छोड़कर औपचारिक रुप से अंग्रेजी से मुठभेड़ छठी कक्षा में हुआ करती थी।
बहरहाल, शिक्षा के उस वक्त की कमियों की ओर इशारा करना मेरा उद्देश्य नहीं। केजी के मेरे सुपुत्र की किताबों की कीमत ढाई से तीन हजार के आसपास रहने वाली है। मुझे कुछ-कुछ अंदाजा तो था लेकिन सिर्फ किताबों की कीमत इतनी रहने वाली है इस पर मैं श्योर नहीं था।
मुझे अपना वक्त याद आय़ा। जब मैं अपने ज़माने की -हालांकि हमारा ज़माना इतना पीछे नहीं है, सिर्फ अस्सी के दशक के मध्य के बरसों की बात है-की बात करता हूं तो मुझे लगता है कि हम न जाने कितनी दूर चले आए हैं। बहुत सी बातें एकदम से बदल गईं हैं। हालांकि, प्रायः सारे बदलाव सकारात्मक से लगते हैं। लेकिन पढाई के बारे में ऐसा ही कहना, कम से कम पढाई की लागत के बारे में...हम स्वागतयोग्य तो नहीं ही मान सकते।
मेरा पहला स्कूल सरस्वती शिशु मंदिर था। कस्बे के कई स्कूलों को आजमाने के बाद तब के दूसरे सबसे अच्छे स्कूल (संसाधनों के लिहाज से) शिशु मंदिर ही था। हमारे कस्बे का सबसे बेहतर स्कूल कॉर्मेल कॉन्वेंट माना जाता था...अंग्रेजी माध्यम का। पूरे कस्बे में इसमें बच्चे का दाखिला गौरव की बात मानी जाती है, हालांकि जिनके बच्चों का दाखिला इस स्कूल में नहीं हो पाता, वो यह कह कर खुद को दिलासा देते कि स्कूल नहीं पढ़ता बच्चे पढ़ते हैं। और इसकी तैयारी हम घर पर ही करवाएंगे अच्छे से।
तैयारी तो खैर क्या होती होगी। हमारा दाखिला सरस्वती शिशु मंदिर में हुआ, दाखिले की फीस थी 40 रुपये और मासिक शुल्क 15 रुपये। यह सन 84 की बात होगी। इसमें यूनिफॉर्म था। नीली पैंट सफेद शर्ट...लाल स्वेटर। बस्ता जरुरी था और टिफिन भी ले जाना होता, जो प्रधान जी के मूड के लिहाज से लंबे या छोटे वाले भोजन मंत्र के बाद खाया जाता। भोजन के पहले मंत्रो की इस अनिवार्यता ने ही नास्तिकता के बीज बो दिए थे। चार साल उसमें पढ़ने के बाद जब फीस बढ़कर 25 रुपये हो गया, और तब घरवालों को लगा कि यह शुल्क ज्यादा है।
भैया की नौकरी लग चुकी थी लेकिन उनका वेतन उतना नहीं थी कि हमारे इस मंहगे पढ़ाई का खर्च उठा पाते। सरस्वती शिशु मंदिर से इस नास्तिक को निकाल कर तिलक विद्यालय में भर्ती कराया गया, जिसे राज्य सरकार चलाती थी और यह मशहूर था कि गांधी जी उस स्कूल में आए थे। गांधी जी की वजह से पूरे कस्बे में यह स्कूल गांधी स्कूल भी कहा जाता। एडमिशन फीस 5 रुपये, और सालाना शुल्क 12 रुपये।
गांधी स्कलू की खासियत थी कि हम 10 बजे स्कूल में प्रार्थना करने के बाद, जो कि हमारे लिए बदमाशियों का सबसे टीआरपी वक्त होता था...सफाई के लिए मैदान में इकट्ठे होते थे। मैदान में पत्ते और कागज चुनने के बाद, क्लास के फर्श की सफाई का काम होता। लाल रंग के उस ब्रिटिश जमाने के फर्श पर ही बैठना होता था इसलिए सफाई जरुरी थी। यह काम रोल नंबर के लिहाज से बंधा होता।
उस वक्त भी, जो शायद 1987 का साल था, किताबों की कीमत हमारी ज़द में हुआ करती थी। पांचवी क्लास में 6 रुपये 80 पैसे की विज्ञान की किताब सबसे मंहगी किताब की कीमत थी। बिहार टेक्स्टबुक पब्लिशिंग कॉरपोरेशन किताबें छापा करती थी, सबसे सस्ती थी संस्कृत की किताब और सबसे मंहगी विज्ञान की।
उसमें भी घरवालों की कोशिश रहती कि किसी पुराने छात्र से किताबें सेंकेंडहैंड दिलवा दी जाएँ। आधी कीमत पर। किताब कॉपियां हाथों में ले जाते. सस्ते पेन...बॉल पॉइंट में भी कई स्तर के...35 पैसे वाले मोटी लिखाई के बॉल पॉइंट रिफिल से लेकर 75 पैसे में पतले लिखे जाने वाले बॉल पॉइंट पेन तक।
स्याही का इस्तेमाल धीरे धीरे कम तो हो रहा था, लेकिन फैशन से बाहर नहीं हुआ था। उस वक्त बिहार सरकार द्वारा वित्त प्रदत्त सब्सिडी वाले कागजों से वैशाली नाम की कॉपियां आतीं थीं...जिन पर जिल्द चढा होता। अब हमारी गुरबत पर न हंसिएगा...वैशाली की कॉपी में नोट्स बनाना मेरे और मेरे दोस्तों का बड़ा ख्वाब हुआ करता। मध्यम मोटाई की कॉपी दो रुपये की आती थी...हमारी सारी बचत वही खरीदने में खर्च होती।
आज वैशाली में ही रहता हूं, बेटे के स्कूल में कंप्यूटरों की भरमार देखकर आया हूं, फीस की रकम देखी...पढाई मंहगी हो गई है या वक्त का तकाजा है...या लोग संपन्न हो गए है या पढाई सुधर गई है...कस्बे और शहर का अंतर....वही सोच रहा हूं। सरकारी स्कूलों में पड़कर और जिंदगी के ढेर सारे साल गरीबी में बिताकर हमने खोया है या पाया है...
जारी
अंग्रेजी स्कूलों से निकले हमारे साथी जरुर -बा बा ब्लैक शीप, हम्प्टी-डम्प्टी और चब्बी चिक्स जानते होंगे, लेकिन बिहार और बाकी के राज्य सरकारों के स्टेट बोर्ड से निकले मित्र जरुर इस बात से सहमत होंगे कि घरेलू स्तर पर छोड़कर औपचारिक रुप से अंग्रेजी से मुठभेड़ छठी कक्षा में हुआ करती थी।
बहरहाल, शिक्षा के उस वक्त की कमियों की ओर इशारा करना मेरा उद्देश्य नहीं। केजी के मेरे सुपुत्र की किताबों की कीमत ढाई से तीन हजार के आसपास रहने वाली है। मुझे कुछ-कुछ अंदाजा तो था लेकिन सिर्फ किताबों की कीमत इतनी रहने वाली है इस पर मैं श्योर नहीं था।
मुझे अपना वक्त याद आय़ा। जब मैं अपने ज़माने की -हालांकि हमारा ज़माना इतना पीछे नहीं है, सिर्फ अस्सी के दशक के मध्य के बरसों की बात है-की बात करता हूं तो मुझे लगता है कि हम न जाने कितनी दूर चले आए हैं। बहुत सी बातें एकदम से बदल गईं हैं। हालांकि, प्रायः सारे बदलाव सकारात्मक से लगते हैं। लेकिन पढाई के बारे में ऐसा ही कहना, कम से कम पढाई की लागत के बारे में...हम स्वागतयोग्य तो नहीं ही मान सकते।
मेरा पहला स्कूल सरस्वती शिशु मंदिर था। कस्बे के कई स्कूलों को आजमाने के बाद तब के दूसरे सबसे अच्छे स्कूल (संसाधनों के लिहाज से) शिशु मंदिर ही था। हमारे कस्बे का सबसे बेहतर स्कूल कॉर्मेल कॉन्वेंट माना जाता था...अंग्रेजी माध्यम का। पूरे कस्बे में इसमें बच्चे का दाखिला गौरव की बात मानी जाती है, हालांकि जिनके बच्चों का दाखिला इस स्कूल में नहीं हो पाता, वो यह कह कर खुद को दिलासा देते कि स्कूल नहीं पढ़ता बच्चे पढ़ते हैं। और इसकी तैयारी हम घर पर ही करवाएंगे अच्छे से।
तैयारी तो खैर क्या होती होगी। हमारा दाखिला सरस्वती शिशु मंदिर में हुआ, दाखिले की फीस थी 40 रुपये और मासिक शुल्क 15 रुपये। यह सन 84 की बात होगी। इसमें यूनिफॉर्म था। नीली पैंट सफेद शर्ट...लाल स्वेटर। बस्ता जरुरी था और टिफिन भी ले जाना होता, जो प्रधान जी के मूड के लिहाज से लंबे या छोटे वाले भोजन मंत्र के बाद खाया जाता। भोजन के पहले मंत्रो की इस अनिवार्यता ने ही नास्तिकता के बीज बो दिए थे। चार साल उसमें पढ़ने के बाद जब फीस बढ़कर 25 रुपये हो गया, और तब घरवालों को लगा कि यह शुल्क ज्यादा है।
भैया की नौकरी लग चुकी थी लेकिन उनका वेतन उतना नहीं थी कि हमारे इस मंहगे पढ़ाई का खर्च उठा पाते। सरस्वती शिशु मंदिर से इस नास्तिक को निकाल कर तिलक विद्यालय में भर्ती कराया गया, जिसे राज्य सरकार चलाती थी और यह मशहूर था कि गांधी जी उस स्कूल में आए थे। गांधी जी की वजह से पूरे कस्बे में यह स्कूल गांधी स्कूल भी कहा जाता। एडमिशन फीस 5 रुपये, और सालाना शुल्क 12 रुपये।
गांधी स्कलू की खासियत थी कि हम 10 बजे स्कूल में प्रार्थना करने के बाद, जो कि हमारे लिए बदमाशियों का सबसे टीआरपी वक्त होता था...सफाई के लिए मैदान में इकट्ठे होते थे। मैदान में पत्ते और कागज चुनने के बाद, क्लास के फर्श की सफाई का काम होता। लाल रंग के उस ब्रिटिश जमाने के फर्श पर ही बैठना होता था इसलिए सफाई जरुरी थी। यह काम रोल नंबर के लिहाज से बंधा होता।
उस वक्त भी, जो शायद 1987 का साल था, किताबों की कीमत हमारी ज़द में हुआ करती थी। पांचवी क्लास में 6 रुपये 80 पैसे की विज्ञान की किताब सबसे मंहगी किताब की कीमत थी। बिहार टेक्स्टबुक पब्लिशिंग कॉरपोरेशन किताबें छापा करती थी, सबसे सस्ती थी संस्कृत की किताब और सबसे मंहगी विज्ञान की।
उसमें भी घरवालों की कोशिश रहती कि किसी पुराने छात्र से किताबें सेंकेंडहैंड दिलवा दी जाएँ। आधी कीमत पर। किताब कॉपियां हाथों में ले जाते. सस्ते पेन...बॉल पॉइंट में भी कई स्तर के...35 पैसे वाले मोटी लिखाई के बॉल पॉइंट रिफिल से लेकर 75 पैसे में पतले लिखे जाने वाले बॉल पॉइंट पेन तक।
स्याही का इस्तेमाल धीरे धीरे कम तो हो रहा था, लेकिन फैशन से बाहर नहीं हुआ था। उस वक्त बिहार सरकार द्वारा वित्त प्रदत्त सब्सिडी वाले कागजों से वैशाली नाम की कॉपियां आतीं थीं...जिन पर जिल्द चढा होता। अब हमारी गुरबत पर न हंसिएगा...वैशाली की कॉपी में नोट्स बनाना मेरे और मेरे दोस्तों का बड़ा ख्वाब हुआ करता। मध्यम मोटाई की कॉपी दो रुपये की आती थी...हमारी सारी बचत वही खरीदने में खर्च होती।
आज वैशाली में ही रहता हूं, बेटे के स्कूल में कंप्यूटरों की भरमार देखकर आया हूं, फीस की रकम देखी...पढाई मंहगी हो गई है या वक्त का तकाजा है...या लोग संपन्न हो गए है या पढाई सुधर गई है...कस्बे और शहर का अंतर....वही सोच रहा हूं। सरकारी स्कूलों में पड़कर और जिंदगी के ढेर सारे साल गरीबी में बिताकर हमने खोया है या पाया है...
जारी
16 comments:
आपका यह लेख कल के "चर्चामंच" पे लगाया जा रहा है ,
सादर
कमल
ओह मंजीत...पुरानी यादें ताजा कर दी। हमारी कहानी भी बिल्कुल यहीं है सिवाय सुपुत्र के। पीछे मुड़कर देखता हूं तो लगता है कि हमने खोया नहीं है पाया ही है। इस पर विवेचना फिर कभी। फिलहाल, पोस्ट के लिए साधुवाद।
आज कल बच्चों को पढ़ना बहुत मंहगा होता जा रहा है ... 1973-74 में जब मैंने एम॰ ए ॰ किया था तो अर्थशास्त्र की एक पुस्तक 20 रुपये की थी जिसको खरीदने के लिए कई दिन तक विचार किया ... और बाद में पुस्तकालय जा कर नोट्स बनाए ... किताब आखिर तक नहीं ही खरीदी गयी :):)
जमाना बदल गया है सर जी...अब स्कूल, अस्पताल मिशन वाली जगह नहीं रहे.कमर्शियलाइज्ड हो गये हैं..
जमाना बदल गया है सर जी...अब स्कूल, अस्पताल मिशन वाली जगह नहीं रहे.कमर्शियलाइज्ड हो गये हैं..
बढि़या प्रस्तुति, अगले किश्त का इंतजार है.
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 23-02-2012 को यहाँ भी है
..भावनाओं के पंख लगा ... तोड़ लाना चाँद नयी पुरानी हलचल में .
मेरी टिप्पणी शायद स्पैम में चली गयी है ...
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 23-02-2012 को यहाँ भी है
..भावनाओं के पंख लगा ... तोड़ लाना चाँद नयी पुरानी हलचल में .
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 23-02-2012 को यहाँ भी है
..भावनाओं के पंख लगा ... तोड़ लाना चाँद नयी पुरानी हलचल में .
आह...क्या दिन याद करवा दिए आपने, हमने पच्छीस रुपये महीना दे कर रीजनल इंजीनियरिंग कालेज में पढाई की है...याद है जब हिंद पाकेट बुक्स वाले एक रुपये में अपनी किताब दिया करते थे...उनकी घरेलु लाइब्रेरी योजना में दस रुपये में सात किताबें पोस्ट से आया करती थीं...वो भी क्या दिन थे रे...
नीरज
Halachal se aana hua aapke blog par, bahut achha laga..
Aur ye 'Nashtar' to man bha gaya :)
Saadar
Madhuresh
बदला कुछ नहीं है बल्कि मैं तो कहूँगा कि शिक्षा का स्तर आज पहले से भी गिरा हुआ है।
सादर
आप जैसा बचपन हमारा भी बीता है, बच्चों की एक वर्ष की फीस में हमारी पूरी पढ़ाई हो गयी।
बहुत ही अच्छी प्रस्तुति ।
शिक्षा का स्तर अब तो सच में गिर गया है
सरकार ने बच्चो के लिये कई सुविधा निकाल दि है..
ओर शिक्षको के लिये मुसिबत
आज तो शिक्षक केवल certificate बनाने मात्र रह गये है ..
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