अंग्रेजी में एक कहावत है, प्रीवेंशन इज बेटर देन क्योर। आप आपदा प्रबंधन के मसले पर क्योर के बदले
रिहैबिलिटेशन शब्द का आसानी से इस्तेमाल कर सकते हैं। आपदा प्रबंधन के मसले पर रेस्पांस , रिलीफ और रिहैबिलिटेशन जैसे शब्दों का इस्तेमाल होता है, लेकिन कहीं भी सावधानी (प्रीवेंशन) का ज़िक्र तक नहीं किया जाता। जाहिर है, यह बदलाव जागरुकता और शिक्षा के जरिए ही आयेगा।
अब बात हालिया भूकम्प की। हिमालय महाद्वीपीय विस्थापन की परिघटना की वजह से बना
है और यह प्रक्रिया अब भी जारी है। इसी वजह से पूरा हिमालयी क्षेत्र भू-स्खलन और
भूकम्प प्रभावित माना जाता है।
इसके साथ ही, जलवायु परिवर्तन की वजह से बारिश के पैटर्न में भी बदलाव आया है। यानी अब
मूसलाधार बारिश की घटनाएं (बादल फटना) पहले से ज्यादा हो रही हैं। इससे भू-स्खलन
की आशंका बढ़ जाती है।
हालांकि, स्थानीय लोगों में इस परिवर्तन को भांपने की, या कहें पूर्वाभास की प्रवृत्ति विकसित हो गई है, फिर भी भूकम्प का मसला इससे अलहदा ही होता है। वैसे भी, साल 2013 के जून जैसी घटनाओं में स्थानीय प्रेक्षण का पूर्वाभास मॉडल भी नाकाम
हो गया था।
केदारनाथ की घटना या नवंबर 2011 के सिक्किम
भूकम्प की घटनाओं से आपदा प्रबंधन के मामले में क्या हमने कोई सीख ली है? जैसा मैंने पहले भी कहा कि आपदा प्रबंधन के
मसले पर हमने एहतियाती उपायों को जरा भी तवज्जो नहीं दी है।
नियंत्रक और महालेखापरीक्षक (कैग) की साल 2012
की खामियों की तरफ गंभीर इशारे करती है जिसमें राष्ट्रीय कार्यकारी समिति की बैठक न होने, आपदा प्रबंधन के लिए राष्ट्रीय योजना की कमी, राज्यों के आपदा प्रबंधन कोष के कुप्रबंधन, खर्च के बावजूद समुचित संचार तंत्र की कमी, और प्रशिक्षण तथा क्षमता निर्माण जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे शामिल हैं।
कैग की रिपोर्ट साफ कहती है कि आपदा प्रबंधन की
स्थिति हिमालयी राज्यों में मैदानी राज्यों की तुलना में बदतर है। उत्तराखंड में
राज्य और जिला अथॉरिटी तकरीबन नकारा हैं इस राज्य में, जिला आपदा प्रबंधन प्राधिकरणों की अब तक महज दो बैठकें ही हो पायी हैं। (अप्रैल, मई 2011 में)।
ध्यातव्य है कि इन प्राधिकरणों
का गठन 2007 में हुआ था और इस तरह उनके गठन को आठ साल पूरे हो चुके हैं। इस काम के
लिए फंड की कमी एक बडी समस्या है। यानी, कोई अधिकारी प्रबंधन को चुस्त- दुरुस्त करना भी चाहे को नहीं कर पाएगा, क्योंकि वैसे भी आभाव उसके कदम रोक देंगे।
लेकिन, अतीत से सबक लेतें हुए नई शुरूआत करने का यही सही वक्त है। आखिर, देश ने कमर कसकर पोलियो को तो खत्म कर ही दिया है। इसी मिसाल को ध्यान में
रखना बेहतर होगा।
अपने सबसे तेजी के दौर में देश भर में 1.5 लाख बच्चे सालाना पोलियो से प्रभावित थे, जबकि हिमालयी राज्यों में हर साल 2 लाख लोग आपदाग्रस्त होते हैं।
नेपाल भूकम्प में भारत सरकार ने त्वरित
कार्रवायी कर एनडीआरएफ की टीम जिस तरह काठमांडू भेजी, वह प्रशंसनीय है। अब वक्त है आपदा-प्रबंधन में ‘सावधानी’ को भी शामिल करने का।
एक और जीवनरक्षक अभियान चलाना जरूरी है, जो आपदा संभावित लोगों की जिंदगी बचायेगा।
1 comment:
Salute to you
" "अतीत से सबक लेतें हुए नई शुरूआत करने का यही सही वक्त है। आखिर, देश ने कमर कसकर पोलियो को तो खत्म कर ही दिया है। इसी मिसाल को ध्यान में रखना बेहतर होगा।" "
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