देखिए, सीधी बात नो बकवास। बिहार को विकास का लालच दिया जा रहा है। लालच बुरी बलाय। पहले तो एक मुख्यमंत्री भये, जिनने सुशासन बाबू का तमगा हासिल किया। उनने जंगल राज के खिलाफ जंग लड़ी। जीते। दस साल मुख्यमंत्री हुए। बिहार का विकास करने की बात कही। अब कह रहे हमको एक टर्म और दीजिए, तब विकास करेंगे।
विकास न भया, डायनासोर का अंडा हो गया।
एक हैं लालू प्रसाद। खुद्दे सीएम रहे, बीवी को भी बनाया। अब बेटी या बेटा में से किसी को बनाना चाह रहे हैं। बेटा को ही बनाना चाह रहे होंगे। उन्ही के राज में पटना हाई कोर्ट ने बिहार के शासन को जंगल राज कहा था।
उनके दौर की बहुत कहानियां हैं जनता के मन में। भूले नै होंगे लोग। नीतीश के दौर की बहुत कहानियां है। उधर प्रधानमंत्री आए तो उनने भी विकास की बात कहकर पता नहीं कितने लाख रूपये बिहार को देने की बात कह डाली। हम अभी तक सही-सही अंदाजा नहीं लगा पाएं है कि कितने जीरो होते हैं सवा लाख करोड़ रूपये में।
बात सौ टके की एक कि आखिर विकास इतना जरूरी ही क्यों है। क्या देश के विकसित राज्यों में लोग ज्यादा सुखी हैं?
मानिए हमारी बात, बिहार को विकसित होने देने या विकास के रस्ते पर जबरिया ठेलने की कोय जरूरत नहीं है। चल रहा है अपना टकदुम-टकदुम। चलता ही रहेगा। दिल्ली, चंडीगढ़, मुंबई जिस जगह पहले पहुंचेगा, पटना-मुजफ्फरपुर-भागलपुर बाद में पहुंच लेगा।
हम तो सबके भले की सोचते हैं। आखिर लोग गरीबी कहां देखने जाएंगे अगर बिहार से भी गरीबी खत्म हो जाएगी? टूटी हुई सडकें कहां मिलेंगी अगर पटना से लेकर गया तक सारी सडकें चकाचक-चमाचम बन जाएंगी।
बाढ़ में हलकान लोग देखने के लिए असम मत भेजिए। बिहार में बाढ़ पर्यटन उर्फ फ्लड टूरिज़म की अपार संभावनाएं हैं। सड़क-घर-गली-मुहल्ल-रेल लाईन पर पानी। बढ़ता पानी-चढ़ता पानी। मचान पर लटककर बैठे लोग। रेल लाईन से उकडूं बैठकर हगते हुए कतारबद्ध लोग। आप क्या यह नहीं चाहते कि देश में टूरिज़म का विकास हो? पॉवर्टी टूरिज़म?
तो सुनिए, बिहार भी विकसित हो जाएगा तो कुपोषण और गाल धंसे लोगों की तस्वीर उतारने कहां जाएंगे लोग? सोमालिया? घोर अन्याय है यह तो। देश में बिहार हो, तो सोमालिया क्यों जाएंगे आप? बेवजह पासपोर्ट वगैरह का झंझट। बस आपको इतना करना है कि किसी भी बिहार जाने वाली ट्रेन में लटक सकने की कूव्वत हो, तो लटक लीजिए वरना फ्लाइट से पटना उतरिए और शहर से दूर किसी गांव में पहुंचिए।
कुपोषण के शिकार लोगों की एक नहीं सौ तस्वीरें मिलेंगी आपको। गृहयुद्ध कवर करना है? हुतू-तुत्सी जनजातियों के लिए इथयोपिया क्यों....गया की तरफ निकलिए। चाहे तो भोजपुर की तरफ निकल लें।
बिहार के लोग कच्ची सड़क, अंधेरे, गंदगी को एन्जॉय करते हैं और यह बात सत्ताधारी जानते हैं। आज से नहीं दशकों से जानते हैं। लेकिन इस बात का आतमगेयान सबसे पहले जगन्नाथ मिश्र को हुआ था, लालू ने इस बात की नब्ज पकड़ ली और यह भी तथ्य स्थापित किया कि तरक्की वगैरह से बिहारियों का दम घटने लगता है। और सड़क पुल वगैरह बनाना भी बेफजूल की बातें हैं। लालू काल में ही यह बात सत्तावर्ग ने स्थापित कर दी, जिनको विकास, शिक्षा वगैरह की बहुत चुल्ल मची हो, वह दिल्ली पुणे, मुंबई की तरफ निकलें। वहीं पढ़ें लिखे, नौकरी करें। बिहार आकर क्या अल्हुआ उखाड़ेंगे या कोदो बोएंगे?
नीतीश ने भी शुरू-शुरू में रोड-वोड बनाकर बिहार का सत्यानाश करना चाहा। तब जाकर उनको इल्म हुआ कि चुनाव-फुनाव विकास वगैरह के घटिया कामों से नहीं जाति के शाश्वत तरीके से जीते जाते हैं। और नतीजा सबके सामने है।
असल में, यह नया नेता वर्ग बिहार का विकास करके सबको बरगलाना चाहता है। यह चाहता है कि बिहार के बच्चे लालटेन की रोशनी की बजाय बिजली में पढ़ा करें। ताकि उस टाइम टीवी भी चले और वह पढ़ नहीं पाएं। यह बिहारी प्रतिभा को कुंद करने का एक तरीका है। सोचिए, बिजली नहीं होगी तो टीवी चलेगी? टीवी जैसे भ्रमित करने वाले माध्यम नहीं होगे तो बच्चे मन लगाकर पढ़ेंगे भी।
बताइए तो सही, हर साल बाढ़ न आए, हर साल मिथिला इलाके में, झोंपड़ों की शक्ल में बने घर बह न जाएं, तो बिहार की छवि का क्या होगा? दांत चियारे हुए दयनीय दशा में लोग...हाथ फैलाए हुए लोग। कभी राज ठाकरे तो कभी उल्फा के हाथों लतियाए जाते लोग...कभी दिल्ली में बिहारी की गाली सुनने वाले और उस पर मुस्कुराकर अपमान पी जाने वाले लोग...विकास हो जाएगा तो इनका क्या होगा?
अपनी भाषा, संस्कृति और स्मिता पर गर्व करना एक साजिश का हिस्सा है। और विकास उस साजिश का केन्द्र बिन्दु है। प्लीज बिहार का विकास मत करिए। वह अपने कद्दू-करेला में खुश है।
विकास न भया, डायनासोर का अंडा हो गया।
एक हैं लालू प्रसाद। खुद्दे सीएम रहे, बीवी को भी बनाया। अब बेटी या बेटा में से किसी को बनाना चाह रहे हैं। बेटा को ही बनाना चाह रहे होंगे। उन्ही के राज में पटना हाई कोर्ट ने बिहार के शासन को जंगल राज कहा था।
उनके दौर की बहुत कहानियां हैं जनता के मन में। भूले नै होंगे लोग। नीतीश के दौर की बहुत कहानियां है। उधर प्रधानमंत्री आए तो उनने भी विकास की बात कहकर पता नहीं कितने लाख रूपये बिहार को देने की बात कह डाली। हम अभी तक सही-सही अंदाजा नहीं लगा पाएं है कि कितने जीरो होते हैं सवा लाख करोड़ रूपये में।
बात सौ टके की एक कि आखिर विकास इतना जरूरी ही क्यों है। क्या देश के विकसित राज्यों में लोग ज्यादा सुखी हैं?
मानिए हमारी बात, बिहार को विकसित होने देने या विकास के रस्ते पर जबरिया ठेलने की कोय जरूरत नहीं है। चल रहा है अपना टकदुम-टकदुम। चलता ही रहेगा। दिल्ली, चंडीगढ़, मुंबई जिस जगह पहले पहुंचेगा, पटना-मुजफ्फरपुर-भागलपुर बाद में पहुंच लेगा।
हम तो सबके भले की सोचते हैं। आखिर लोग गरीबी कहां देखने जाएंगे अगर बिहार से भी गरीबी खत्म हो जाएगी? टूटी हुई सडकें कहां मिलेंगी अगर पटना से लेकर गया तक सारी सडकें चकाचक-चमाचम बन जाएंगी।
बाढ़ में हलकान लोग देखने के लिए असम मत भेजिए। बिहार में बाढ़ पर्यटन उर्फ फ्लड टूरिज़म की अपार संभावनाएं हैं। सड़क-घर-गली-मुहल्ल-रेल लाईन पर पानी। बढ़ता पानी-चढ़ता पानी। मचान पर लटककर बैठे लोग। रेल लाईन से उकडूं बैठकर हगते हुए कतारबद्ध लोग। आप क्या यह नहीं चाहते कि देश में टूरिज़म का विकास हो? पॉवर्टी टूरिज़म?
तो सुनिए, बिहार भी विकसित हो जाएगा तो कुपोषण और गाल धंसे लोगों की तस्वीर उतारने कहां जाएंगे लोग? सोमालिया? घोर अन्याय है यह तो। देश में बिहार हो, तो सोमालिया क्यों जाएंगे आप? बेवजह पासपोर्ट वगैरह का झंझट। बस आपको इतना करना है कि किसी भी बिहार जाने वाली ट्रेन में लटक सकने की कूव्वत हो, तो लटक लीजिए वरना फ्लाइट से पटना उतरिए और शहर से दूर किसी गांव में पहुंचिए।
कुपोषण के शिकार लोगों की एक नहीं सौ तस्वीरें मिलेंगी आपको। गृहयुद्ध कवर करना है? हुतू-तुत्सी जनजातियों के लिए इथयोपिया क्यों....गया की तरफ निकलिए। चाहे तो भोजपुर की तरफ निकल लें।
बिहार के लोग कच्ची सड़क, अंधेरे, गंदगी को एन्जॉय करते हैं और यह बात सत्ताधारी जानते हैं। आज से नहीं दशकों से जानते हैं। लेकिन इस बात का आतमगेयान सबसे पहले जगन्नाथ मिश्र को हुआ था, लालू ने इस बात की नब्ज पकड़ ली और यह भी तथ्य स्थापित किया कि तरक्की वगैरह से बिहारियों का दम घटने लगता है। और सड़क पुल वगैरह बनाना भी बेफजूल की बातें हैं। लालू काल में ही यह बात सत्तावर्ग ने स्थापित कर दी, जिनको विकास, शिक्षा वगैरह की बहुत चुल्ल मची हो, वह दिल्ली पुणे, मुंबई की तरफ निकलें। वहीं पढ़ें लिखे, नौकरी करें। बिहार आकर क्या अल्हुआ उखाड़ेंगे या कोदो बोएंगे?
नीतीश ने भी शुरू-शुरू में रोड-वोड बनाकर बिहार का सत्यानाश करना चाहा। तब जाकर उनको इल्म हुआ कि चुनाव-फुनाव विकास वगैरह के घटिया कामों से नहीं जाति के शाश्वत तरीके से जीते जाते हैं। और नतीजा सबके सामने है।
असल में, यह नया नेता वर्ग बिहार का विकास करके सबको बरगलाना चाहता है। यह चाहता है कि बिहार के बच्चे लालटेन की रोशनी की बजाय बिजली में पढ़ा करें। ताकि उस टाइम टीवी भी चले और वह पढ़ नहीं पाएं। यह बिहारी प्रतिभा को कुंद करने का एक तरीका है। सोचिए, बिजली नहीं होगी तो टीवी चलेगी? टीवी जैसे भ्रमित करने वाले माध्यम नहीं होगे तो बच्चे मन लगाकर पढ़ेंगे भी।
बताइए तो सही, हर साल बाढ़ न आए, हर साल मिथिला इलाके में, झोंपड़ों की शक्ल में बने घर बह न जाएं, तो बिहार की छवि का क्या होगा? दांत चियारे हुए दयनीय दशा में लोग...हाथ फैलाए हुए लोग। कभी राज ठाकरे तो कभी उल्फा के हाथों लतियाए जाते लोग...कभी दिल्ली में बिहारी की गाली सुनने वाले और उस पर मुस्कुराकर अपमान पी जाने वाले लोग...विकास हो जाएगा तो इनका क्या होगा?
अपनी भाषा, संस्कृति और स्मिता पर गर्व करना एक साजिश का हिस्सा है। और विकास उस साजिश का केन्द्र बिन्दु है। प्लीज बिहार का विकास मत करिए। वह अपने कद्दू-करेला में खुश है।
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