पैरिस जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में लंबी बहस के बाद आख़िरकार सारे देश एक समझौते तक पहुंचे लेकिन इस समझौते से मैं बहुत मुतमईन नहीं हूं। कई सवाल अपनी जगह पर बने हुए हैं। जलवायु परिवर्तन पर हुए समझौते के मामले में भाषा भी बहस और मतभेदों की वजह रही। पिछले हफ्ते मैंने इशारा भी किया था, कि ‘किया जाएगा’ और ‘किया जाना चाहिए’ जैसे लफ़्जों का इस्तेमाल समझौते की दिशा और दशा को बदल देगा। यह भी सच है कि समझौता करीब-करीब नाकामी के दरवाज़े तक पहुंचा दिया गया था।
दोनों ही शब्द विकासशील देशों के प्रति विकसित देशों के नज़रिए के फर्क के मायनों की परिभाषा तय देने के लिए काफी हैं।
पूरी दुनिया की तरह भारत ने भी समझौते का स्वागत किया। लेकिन अब सारी बहस समझौते के मायने और 'किया जाएगा' और 'किया जाना चाहिए' के विरोधाभास के ईर्द-गिर्द सिमटी गई है और उसी के आधार पर आगे के बरसों में होती रहेगी।
शुरू में समझौते की धारा 4 के तहत 'अमीर देश ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन में कटौती करने के लिए अर्थव्यवस्था में व्यापक लक्ष्य निर्धारित करेंगे', ऐसा लिखा गया था। लेकिन अमेरिकी दवाब के बाद इसमें बदलाव कर दिया गया। यह बदलाव काफी अहम है क्योंकि 'किया जाएगा'के साथ क़ानूनी दायित्व जुड़े हैं लेकिन 'किया जाना चाहिए' के साथ ऐसी कोई बाध्यता नहीं है।
उत्सर्जन में कटौती का मुद्दा अब अमीर देशों की प्रतिबध्ता की जगह अमीर देशों की इच्छा पर निर्भर करेगा। आप चाहे इस समझौते के लिए कितना भी जश्न मना लें और यह मान कर चलें कि विकासशील देशों को साफ-सुथरी ऊर्जा के माध्यम अपनाने के लिए अमीर देश तो बिलियनों डॉलर देंगे ही।
इसी तरह विकासशील और विकसित देशों के अलग-अलग जवाबदेही तय करने की भारत की मांग नहीं मानी गई। तो सीधा मान लेना चाहिए कि इससे भारत जैसे देश की महत्वकांक्षा को नुक़सान पहुंचेगा, जो कोयला आधारित ऊर्जा की बदौलत अपनी अर्थव्यवस्था का तापमान बढाए रखने और उसे रफ़तार देने की कोशिशों में लगे हैं। आखिरकार किसी देश की आर्थिक वृद्धि उसकी ऊर्जा ज़रूरतों के ही मुताबिक तो घटती-बढ़ती है।
यह दुनिया के जलवायु परिवर्तन के मद्देनज़र तो ठीक है लेकिन भारत के विकास के नज़रिए के माकूल नहीं है। क्लाइमेट फंडिंग को लेकर परिभाषा साफ नहीं हो पाई है। विकसित देशों अब विकासशील देशों को पैसे तो देंगे, लेकिन विकसित देश पैसा देने के लिए बाध्य नहीं होंगे।
दूसरी तरफ, आप और पर्यावरण की चिंता में लगातार घुलते रहने वाले लोग मुझ पर लानते भेंजे लेकिन मेरा साफ मानना है कि विकसित देशों ने अपने हिस्से का कार्बन उत्सर्जन तो कर लिया लेकिन अब विकासशील देशों की बारी में वे लोग भांजी मार रहे हैं।
अव्वल तो मुझे ग्लोबल वॉर्मिंग का कॉन्सेप्ट ही विरोधाभासी लगता है। प्रदूषण का मसला अपनी जगह है। यह सही है कि वातावरण में धुआं और ज़हरीली गैसे उत्सर्जित करके हम आबो-हवा को बिगाड़ रहे हैं, लेकिन कुछ वैज्ञानिक (?) और गैर-सरकारी संगठन दूर की कौड़ी लेकर आए हैं कि इससे पृथ्वी के घूर्णन पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है और दिन पहले के मुकाबले लंबे हो रहे हैं। मैंने जितना पढ़ा है उससे साफ कह सकता हूं कि यह धारणा भ्रामक है।
तीसरी बात यह कि जलवायु परिवर्तन पृथ्वी पर कोई पहली दफा नहीं हो रहा। धरती के तापमान में हमेशा घट-बढ़त होती रहती है। पृथ्वी के जलवायविक परिवर्तनों का इतिहास बताता है कि पृथ्वी की उत्पत्ति से लेकर अब तक चार बार हिमकाल आ चुके हैं, यानी सारी धरती बर्फ से ढंक गई थी, इनको गुंज, मिंडल, रिस और वुर्म हिमकाल कहते हैं। इसी तरह अपनी विज्ञान की पाठ्यपुस्तकों में आप सबने पढ़ा होगा कि साइबेरिया में हाथी के पूर्वज मैमथ का जीवाश्म मिला है जिसकी सूंढ़ में घास भी मिला है। इसी तरह आपको कुछ और मिसालें दूं, जैसे कि साइबेरिया औ कश्मीर के करगिल में बिटुमिनस कोयले के भंडार होना। कोयला वहीं बनता है जहां कभी घने जंगल हों।
साइबेरिया और कारगिल में घने जंगल तो तभी रहे होंगे, जब उस इलाके में जलवायु गर्म और नम रही होगी। ऐसी जलवायु वहीं मिलती है जिसके आसपास से तापीय विषुवत रेखा गुजरती है। मेरे कहने का गर्ज है कि तापीय विषुवत रेखा अपनी जगह बदलती है। पृथ्वी में हिमयुग और गर्म युगों का आना-जाना लगा रहता है। तो धरती के तापमान में बदलने को सिर्फ प्रदूषण से मत जोड़िए। हो सकता है कि विकसित देशों की यह कारोबारी नीति हो कि वह अपनी कथित क्लीन टेक्नॉलजी को बेचने के लिए इतने वितंडे कर रहा हो। बस कह रहा हूं, बाकी जो है सो तो हइए है।
दोनों ही शब्द विकासशील देशों के प्रति विकसित देशों के नज़रिए के फर्क के मायनों की परिभाषा तय देने के लिए काफी हैं।
पूरी दुनिया की तरह भारत ने भी समझौते का स्वागत किया। लेकिन अब सारी बहस समझौते के मायने और 'किया जाएगा' और 'किया जाना चाहिए' के विरोधाभास के ईर्द-गिर्द सिमटी गई है और उसी के आधार पर आगे के बरसों में होती रहेगी।
शुरू में समझौते की धारा 4 के तहत 'अमीर देश ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन में कटौती करने के लिए अर्थव्यवस्था में व्यापक लक्ष्य निर्धारित करेंगे', ऐसा लिखा गया था। लेकिन अमेरिकी दवाब के बाद इसमें बदलाव कर दिया गया। यह बदलाव काफी अहम है क्योंकि 'किया जाएगा'के साथ क़ानूनी दायित्व जुड़े हैं लेकिन 'किया जाना चाहिए' के साथ ऐसी कोई बाध्यता नहीं है।
उत्सर्जन में कटौती का मुद्दा अब अमीर देशों की प्रतिबध्ता की जगह अमीर देशों की इच्छा पर निर्भर करेगा। आप चाहे इस समझौते के लिए कितना भी जश्न मना लें और यह मान कर चलें कि विकासशील देशों को साफ-सुथरी ऊर्जा के माध्यम अपनाने के लिए अमीर देश तो बिलियनों डॉलर देंगे ही।
इसी तरह विकासशील और विकसित देशों के अलग-अलग जवाबदेही तय करने की भारत की मांग नहीं मानी गई। तो सीधा मान लेना चाहिए कि इससे भारत जैसे देश की महत्वकांक्षा को नुक़सान पहुंचेगा, जो कोयला आधारित ऊर्जा की बदौलत अपनी अर्थव्यवस्था का तापमान बढाए रखने और उसे रफ़तार देने की कोशिशों में लगे हैं। आखिरकार किसी देश की आर्थिक वृद्धि उसकी ऊर्जा ज़रूरतों के ही मुताबिक तो घटती-बढ़ती है।
यह दुनिया के जलवायु परिवर्तन के मद्देनज़र तो ठीक है लेकिन भारत के विकास के नज़रिए के माकूल नहीं है। क्लाइमेट फंडिंग को लेकर परिभाषा साफ नहीं हो पाई है। विकसित देशों अब विकासशील देशों को पैसे तो देंगे, लेकिन विकसित देश पैसा देने के लिए बाध्य नहीं होंगे।
दूसरी तरफ, आप और पर्यावरण की चिंता में लगातार घुलते रहने वाले लोग मुझ पर लानते भेंजे लेकिन मेरा साफ मानना है कि विकसित देशों ने अपने हिस्से का कार्बन उत्सर्जन तो कर लिया लेकिन अब विकासशील देशों की बारी में वे लोग भांजी मार रहे हैं।
अव्वल तो मुझे ग्लोबल वॉर्मिंग का कॉन्सेप्ट ही विरोधाभासी लगता है। प्रदूषण का मसला अपनी जगह है। यह सही है कि वातावरण में धुआं और ज़हरीली गैसे उत्सर्जित करके हम आबो-हवा को बिगाड़ रहे हैं, लेकिन कुछ वैज्ञानिक (?) और गैर-सरकारी संगठन दूर की कौड़ी लेकर आए हैं कि इससे पृथ्वी के घूर्णन पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है और दिन पहले के मुकाबले लंबे हो रहे हैं। मैंने जितना पढ़ा है उससे साफ कह सकता हूं कि यह धारणा भ्रामक है।
तीसरी बात यह कि जलवायु परिवर्तन पृथ्वी पर कोई पहली दफा नहीं हो रहा। धरती के तापमान में हमेशा घट-बढ़त होती रहती है। पृथ्वी के जलवायविक परिवर्तनों का इतिहास बताता है कि पृथ्वी की उत्पत्ति से लेकर अब तक चार बार हिमकाल आ चुके हैं, यानी सारी धरती बर्फ से ढंक गई थी, इनको गुंज, मिंडल, रिस और वुर्म हिमकाल कहते हैं। इसी तरह अपनी विज्ञान की पाठ्यपुस्तकों में आप सबने पढ़ा होगा कि साइबेरिया में हाथी के पूर्वज मैमथ का जीवाश्म मिला है जिसकी सूंढ़ में घास भी मिला है। इसी तरह आपको कुछ और मिसालें दूं, जैसे कि साइबेरिया औ कश्मीर के करगिल में बिटुमिनस कोयले के भंडार होना। कोयला वहीं बनता है जहां कभी घने जंगल हों।
साइबेरिया और कारगिल में घने जंगल तो तभी रहे होंगे, जब उस इलाके में जलवायु गर्म और नम रही होगी। ऐसी जलवायु वहीं मिलती है जिसके आसपास से तापीय विषुवत रेखा गुजरती है। मेरे कहने का गर्ज है कि तापीय विषुवत रेखा अपनी जगह बदलती है। पृथ्वी में हिमयुग और गर्म युगों का आना-जाना लगा रहता है। तो धरती के तापमान में बदलने को सिर्फ प्रदूषण से मत जोड़िए। हो सकता है कि विकसित देशों की यह कारोबारी नीति हो कि वह अपनी कथित क्लीन टेक्नॉलजी को बेचने के लिए इतने वितंडे कर रहा हो। बस कह रहा हूं, बाकी जो है सो तो हइए है।
1 comment:
कमाल है कि इस मुद्दे को इस नज़रिए से भी देखा जा सकता है आपकी पोस्ट पढ़ कर ही अंदाज़ा हुआ | बेहतरीन पोस्ट है ..बहुत बढ़िया ..आनंद आ गया
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