दुनियाभर के 40 देश गहरे जलसंकट से जूझ रहे हैं और बढ़ती आबादी और बढ़ते शहरीकरण के मद्देनजर भारत में भी यह संकट गहरा होता जा रहा है. भूमिगत जल तेजी से नीचे खिसकता जा रहा है. जैसे-जैसे दुनिया की आबादी बढ़ती जाएगी, शहरीकरण भी बढ़ता जाएगा और उसके साथ जलवायु परिवर्तन भी तेज होगा और इसके प्रभाव भी स्पष्ट रूप से दिखने लगे हैं.
इसके साथ ही लोगों की खाने की आदतों में भी बदलाव आएगा और इन सबके मिले-जुले प्रभाव से भविष्य में पानी का मांग में जबरदस्त इजाफा होगा.
नीति आयोग ने जून, 2019 में ‘कंपॉजिट वाटर मैनेजमेंट इंडैक्स रिपोर्ट’ जारी की थी, इसमें बताया गया है कि देश में 60 करोड़ लोग अत्यधिक जल संकट का सामना कर रहे हैं. विशेषज्ञों के मुताबिक, सालाना 1700 क्यूबिक मीटर प्रतिव्यक्ति से कम पानी की उपलब्धता को ‘जलसंकट’ माना जाता है.
मौजूदा चलन के हिसाब से देखा जाए तो 2030 तक जल की मांग में करीबन 40 फीसद की वृद्धि होगी और धारा के विरुद्ध (अपस्ट्रीम) जलापूर्ति के लिए सरकारों को करीबन 200 अरब डॉलर सालाना खर्च करना होगा. इसकी वजह यह होगी कि पानी की मांग जलापूर्ति के सस्ते साधनों से पूरी नहीं हो पाएगी. वैसे, बता दें अभी दुनिया भर में कुल मिलाकर औसतन 40 से 45 अरब डॉलर का खर्च जलापूर्ति यानी वॉटर सप्लाई पर आता है.
टिकाऊ विकास के लिए स्वच्छ जल का विश्वसनीय स्रोत होना बेहद जरूरी है. जब स्वच्छ जल उपलब्ध नहीं होगा, तो दुनिया की गरीब आबादी को अपनी आमदनी का बड़ा हिस्सा इसे खरीदने में खर्च करना होगा, या फिर उनकी जिंदगी का बड़ा हिस्सा इसको ढोने में खर्च हो जाएगा. इससे विकास बाधित होगा.
पूरी दुनिया में ताजे पानी के एक फीसद का भी आधा हिस्सा ही मानवता और पारितंत्र (इकोसिस्टम्स) की जरूरतों के लिए उपलब्ध है. जाहिर है, हमें कम मात्रा में इसका इस्तेमाल बेहतर तरीके से करना सीखना होगा. मिसाल के तौर पर, दुनिया भर में ताजे पानी का खर्च का 70 फीसद हिस्सा कृषि सेक्टर में इस्तेमाल में लाया जाता है. दुनिया भर में आबादी बढ़ने के साथ ही, कृषि क्षेत्र भी जल संसाधनों पर दबाव बढ़ाने लगेगा.
ऐसे में हमें उन जल संरक्षण परंपराओं को ध्यान में रखना और विकसित करना होगा, जिसको हमारे पुरखे अपनाते आए हैं. पर हमें खास खयाल रखना होगा कि नदियां बची रहें. हमने लापरवाही की वजह से, और कई बार जान-बूझकर कई नदियों को खत्म कर दिया है. बहुत सारी नदियां बारहमासी नदियों से मौसमी नदियों में तब्दील हो गई हैं. ज्यादातर नदियों की पाट में अतिक्रमण करके घर, खेत, फैक्ट्री, रिजॉर्ट बना लिए गए हैं.
असल में, नदियों को लेकर हमारे विचारों में बहुत पोलापन है. या तो हम सीधे मां और देवी कह कर नदियों की आरती करेंगे, चूनर और प्रसाद चढ़ाएंगे, लेकिन अपने घरों का गू भी उसी में बहाएंगे.
आम तौर पर माना जाता है कि नदी का काम पानी ले जाना है, जो आगे जाकर समुद्र में मिल जाती है. लेकिन, क्या हमने कभी यह सुना है कि नदी का काम गाद ले जाना भी है? ख़ासकर गंगा जैसी नदियों के संदर्भ में यह और भी महत्वपूर्ण है. यह बुनियादी सोच ही शायद योजनाओं और परियोजनाओं में जगह नहीं बना पाई है.
मैं आज, 2023 में आपको अगले पांच सालों में भयावह रूप अख्तियार कर रहे जल संकट की चेतावनी दे रहा हूं. हमारी आबादी पेड़ों और नदियों की दुश्मन हो गई है, अभी भी नहीं चेते तो बाद में मैय्यो-दय्यो करने से कुछ हासिल नहीं होगा.
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