जैसा कि हमेशा होता है मेरे दफ्तर में कुछ लोग ऐसे हैं जो बड़े लोगों के खासमखास हैं। बड़े, बरगद से भी बड़े लोगों के नजदीकी, क्लोज लोग... क्लोज बोले तो बिलकुल क्लोज। पता नहीं ये क्लोजनेस किस मायने में है, लेकिन ये तो तय है कि ये बड़े लोगों के बेटे या बेटी या भांजे-भतीजे-बुआ के लड़के नहीं हैं। तो ये तय रहा कि वे मक्खनबाज़ कम्युनिटी के सम्मानित सदस्य हैं जिन्हे हम लोग आम भाषा में चमचे कहते हैं।
तो इन चमचों का क्रेज़ ऐसा है कि ये लोग बॉस तक को हड़का देते हैं। लेकिन चमचों की इस फौज़ ने अपनी अहमियत के पैर को खुद ही कुल्हाड़े पर मार दिया है। छोटी-छोटी चीज़ो के लिए मचल जाते हैं। मसलन, बॉस मुझे घर फोन करना है॥ सरकारी फोन से। बास कहता है तथास्तु। जिस वरदान से वह कॉपी एडिटर हो सकते थे, उन्होंने इसी वरदान का इस्तेमाल चतुर्थ वर्गीय कर्मचारी बनने के लिए कर लिया है। बॉस हैरान भी है खुश भी..
चमचा ठिनक कर कहता है- बॉस मुझे कैंटीन से मुफ्त में चाय चाहिए। बास कहे देता है-एवमस्तु। गुस्ताख भी हैरान हैं।
अगर गुस्ताख किसी का चमचा होता तो दस बजे वाली रोज़ाना की मीटिंग उसके घर पर हुआ करती, लेकिन गुस्ताख को हैरानी इस बात की भी है कि लोग किस तरह बेहयाई से रत्नजटित तलवार से सब्जी काटते हैं। हमें भी दुख है। बहुमूल्य सिफारिशों के इसतरह बेजा इस्तेमाल का।
4 comments:
सही कह रहे हैं-सबके बस का नहीं है, उपर उठने के लिये इतना नीचे गिर जाना.
hmmmmm
हिला दिया...आज विवेक भैया ने भी ऑफ द रिकार्ड में मिलता जुलता, छापा है...लेकिन चमचों से सतर्क जरुर रहना चाहिए।
this one is the untimate one....
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