जब भी वैशाली मेट्रो स्टेशन से उतरकर घर की ओर प्रयाण करता हूं, सेक्टर चार के मार्केट में छिले-छिलाए मुर्गे नजर आते हैं। उनको भून कर पकाने वाले ने उनके छड़ घुसेड़कर उल्टा लटका रखा होता है। मानो इंसानों ने जान ले कर ही संतोष नहीं किया। मुर्गे को खाने से पहले इतनी बेइज्ज़ती का क्या तात्पर्य? तय किय़ा कि अगला जन्म अगर हुआ तो कसम ईश्वर की मुर्गा तो नहीं बनूंगा।
मुर्गा एक ऐसा प्रजाति है कि क्या कहें। जितने दलित-वंचित ये पक्षी होते हैं कोई और हो भी नहीं सकता। प्रियदर्शन जी की एक कविता गाहे-बगाहे याद हो आती है लेकिन उसका ज़िक्र बाद में। मुर्गों की नस्ल को न्याय दिलाना मेरा प्रथम कर्तव्य है।
आखिर जब भी हम मोर कहते हैं तो एक पंख फैलाए सावन की घटाओं में नाचता पक्षी हमें याद आता है। कौआ कहते ही काले रंग का तेज तर्रार परिंदा, जो इतने तेज माने जाते हैं कि इंद्र के लौंडे जयंत को भी सीता को छेड़ना हुआ तो वह कौआ ही बना। हम तोता कहते हैं तो हरे रंग की चिडि़या याद आती है, किंगफिशर से नीलकंठ याद आता है। जो कभी बारिश का तो कभी डूबते हुए एयर लाईन का तो कभी विजय माल्या का तो कभी बीयर की बोतल की याद दिला जाता है। वैसे है बहुत खूबसूरत पंछी।
लेकिन कभी आपने मुर्गे को चिड़िया की तरह याद किया है? मुर्गा को हम खुद उसके नाम से याद नहीं करते। हम कहते हैं चिकन। मुर्गा भी कहते ही हमें एक परिंदे की बजाय एक व्यंजन याद आता है खासकर जो मुर्गे के बच्चों का नाम होता है। इतसपर भी हमने ज्यादातर मुर्गों की पहचान उसके रानों यानी लेग पीस से बना रखी है। कैसा शोषण है ये।
वैसे एडल्ट मुर्गे का नाम कॉक होता है। वयस्क साहित्य से परिचित और रेलगर पाठक के लिए इस शब्द का अर्थ ही विशेष होता है और इस शब्द से जुड़ी ध्वनियां भी।
हमने एक पूरी चिड़िया बिरादरी को एक व्यंजन में बदल दिया है। क्या इसे सामाजिक न्याय का हक नहीं? वक्त आ गया है कि मुर्गों को हक मिले। ब्रायलर का चिकन हो, सफेद सफेद या फिर देसी मुर्गे। विविधता के बावजूद दोनों नस्लों की नियति कड़ाही ही है। हद तो ये है कि मु्र्गियों के अंडों को बिना फर्टिलाइज़ हुए ही दुकानों पर तमाम विधियों से बेचा जा रहा है। बिना मुर्गियों की पीड़ा समझे...जिनके अजन्मे बच्चों की बद्दुआ का हकदार हमीं लोग हैं।
मुझे ये पोस्ट लिखने की प्रेरणा प्रियदर्शन की कविता से मिली है। इसके लिए मैं प्रियदर्शन जी का आभारी हूं।
लेकिन, उम्मीद है कि आप इस बिरादरी के चर्चे को महज मुर्गा नहीं मान रहे होंगे।
मुर्गा एक ऐसा प्रजाति है कि क्या कहें। जितने दलित-वंचित ये पक्षी होते हैं कोई और हो भी नहीं सकता। प्रियदर्शन जी की एक कविता गाहे-बगाहे याद हो आती है लेकिन उसका ज़िक्र बाद में। मुर्गों की नस्ल को न्याय दिलाना मेरा प्रथम कर्तव्य है।
आखिर जब भी हम मोर कहते हैं तो एक पंख फैलाए सावन की घटाओं में नाचता पक्षी हमें याद आता है। कौआ कहते ही काले रंग का तेज तर्रार परिंदा, जो इतने तेज माने जाते हैं कि इंद्र के लौंडे जयंत को भी सीता को छेड़ना हुआ तो वह कौआ ही बना। हम तोता कहते हैं तो हरे रंग की चिडि़या याद आती है, किंगफिशर से नीलकंठ याद आता है। जो कभी बारिश का तो कभी डूबते हुए एयर लाईन का तो कभी विजय माल्या का तो कभी बीयर की बोतल की याद दिला जाता है। वैसे है बहुत खूबसूरत पंछी।
लेकिन कभी आपने मुर्गे को चिड़िया की तरह याद किया है? मुर्गा को हम खुद उसके नाम से याद नहीं करते। हम कहते हैं चिकन। मुर्गा भी कहते ही हमें एक परिंदे की बजाय एक व्यंजन याद आता है खासकर जो मुर्गे के बच्चों का नाम होता है। इतसपर भी हमने ज्यादातर मुर्गों की पहचान उसके रानों यानी लेग पीस से बना रखी है। कैसा शोषण है ये।
वैसे एडल्ट मुर्गे का नाम कॉक होता है। वयस्क साहित्य से परिचित और रेलगर पाठक के लिए इस शब्द का अर्थ ही विशेष होता है और इस शब्द से जुड़ी ध्वनियां भी।
हमने एक पूरी चिड़िया बिरादरी को एक व्यंजन में बदल दिया है। क्या इसे सामाजिक न्याय का हक नहीं? वक्त आ गया है कि मुर्गों को हक मिले। ब्रायलर का चिकन हो, सफेद सफेद या फिर देसी मुर्गे। विविधता के बावजूद दोनों नस्लों की नियति कड़ाही ही है। हद तो ये है कि मु्र्गियों के अंडों को बिना फर्टिलाइज़ हुए ही दुकानों पर तमाम विधियों से बेचा जा रहा है। बिना मुर्गियों की पीड़ा समझे...जिनके अजन्मे बच्चों की बद्दुआ का हकदार हमीं लोग हैं।
मुझे ये पोस्ट लिखने की प्रेरणा प्रियदर्शन की कविता से मिली है। इसके लिए मैं प्रियदर्शन जी का आभारी हूं।
लेकिन, उम्मीद है कि आप इस बिरादरी के चर्चे को महज मुर्गा नहीं मान रहे होंगे।
2 comments:
सच कहा आपने, बहुत बड़ा अन्याय हो रहा है इस प्रजाति के साथ..
मेरे ख्याल से, मुर्गी से तो कम ही दर्द पाता है मुर्गा.
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