कांच
का तकरीबन वैसा ही ग्लास लिए अभिजीत लकड़ी के एक मोढा-कम-बेंच पर टिका था। कत्थई
चाय उसके होठों का इंतजार कर रही थीं। शाम उतरने के
साथ ही जो हल्की-हल्की ठंडी हवा लजाई दुलहन की तरह पहले बाहर दरवाजे की ओट में खड़ी थी,
अब झुटपुटा होते ही सीधे सामने आ गई थी।
अभिजीत अप्रैल में ऐसे गर्म मौसम में इस सुकूनबख्श हवा से तरोताजा होने लगा। पूरी भीड़ में वही एक था, जिनके पास शहरी कहने लायक कपड़े थे। ऐसा नहीं था कि बाकी लोगों के कपड़े कुछ बेहद देहाती किस्म के रहे हों, लेकिन अभिजीत के कपड़ो में एक सलीका था, जो उसे भीड़ से अलग कर रहा था।
भीड़ से अलग कर देने वाले इन कपड़ों से उसे कुछ याद आया।
पता नहीं क्यों उसे हर बात में मृगांका की याद क्यों हो आती है। मृगांका की एक सहेली थी। दफ्तर में जॉइन करते ही सहेली बनना भी लाजिमी ही थी। उस सहेली से नजर बचाकर कभी-कभी अभिजीत उसकी आंखों में झांकने की कोशिश कर लेता था।
अभिजीत के दिमाग़ में एक्सट्रीम क्लोज-अप में सिर्फ मृगांका थी। जो मुस्कुराती थी तो लगने लगता कि मोतियों की बारिश होनी शुरु हो गई है। जो उसे कभी अमलतास तो कभी कचनार जैसी लगती थी।
अभिजीत को वह दिन कभी नहीं भूलेगा जब मृगांका से उसकी बातचीत शुरु हुई थी। बातें न जाने कहां से शुरु हुई थीं, जो किताबों, मौसम, खबरों, ए राजा, सेंसेक्स से होती हुई कविताओं वगैरह पर खत्म हुई। अभिजीत बहुत खुश था। उसके खुश होने की कुछ खास वजहें हुआ करती थीं। आज तो उन सब वजहों के ऊपर एक नई वडह पैदा हुई थी...मृगांका।
अकेले में वह इस नाम को बार-बार दुहराता रहता। हमेशा बढ़ी हुई शेव में रहने वाले, तीन दिन तक एक ही शर्ट में दफ्तर में आने वाले अभिजीत को कुछ सतर्कता बरतनी पड़ी। दरअसल, उसका शेव किया जाना भी, उसके बाकी के सहयोगियों के लिए बड़ी खबर की तरह थी।
शेव बनाकर आए अभिजीत को देखकर पता नहीं क्यों, लेकिन मृगांका मुस्कुराई थी। ऐसी मुस्कुराहटों के कई अर्थ निकाले जाते हैं। अभिजीत ने अपने मतलब का अर्थ निकाल लिया था। वैसे पता तो आजतक नहीं चला है कि शेव बनाने की उसकी दुर्लभ आयोजन के बारे में मृगांका को किसीने पहले ही बताया था या नहीं।
वेटिंग रुम में यहां-वहां पोटलियां पसरी थीं। मक्खियां भिनभिना रही थीं। औरतें आदतन गुलगपाडा मचा रही थीँ। कोई बूढा़ अपने फेफड़ों में जमा तकरीबन सारे बलगम को खांस-खांसकर वहीं सादर समर्पित किए दे रहा था। एक औरत अपने बच्चे को दुकान के आगे मचलते देखकर उसे थपड़ाने पर उतारू थी और गालियों से उसके खानदान का उद्धार किए दे रही थी।
पता नहीं क्या सोचते हुए वह दरभंगा स्टेशन की गंदी जगह से बाहर निकल गया। यहां एक शिलालेख होना चाहिए.. अगर कहीं नरक है तो यहीं है, यहीं है, यहीं है। उसने सोचा। अपनी हथेलियां रगड़ते हुए उसने सिगरेट सुलगा ली।
बसें, मुसाफिरों को भरकर दनादन निकल रही थीं। यहां ‘दनादन’ शब्द का इस्तेमाल महज साहित्यिक संदर्भ में किया गया है। उम्मीद है कि पाठक इसका कत्तई बुरा न मानते हुए मुआफ़ करेंगे, क्योंकि इस सड़क की दशा महज प्राचीन काल में ऐसी रही होगी, जब उसपर गाडियां दनादन दौड़ सकती होंगी। वरना अभी तो सड़क कहीं बिला गई है और ऊबड़-खाबड़ ईंटों के ढेर पर बसें फुदकती-कुदकती चलती हैं। बहरहाल, उसी चिल्लपों और गुलगपाड़े से निकलता हुआ अभिजीत बस अड्डे को जाने के लिए तैयार हुआ।
अहाते के बाहर सड़की की दूसरी तरफ, कई होटलों (पढिए-ढाबों) के साईन बोर्ड, चाणक्य होटल, मिथिला होटल.. ऐसे ही नाम। कोई शुद्ध मांसाहार, कोई मिथिला का ठेठ माछ-भात खिलाने का दावा करता हुआ दिख रहा था तो किसी के इश्तिहार में शुद्ध बैष्णव ढाबा लिखा था। साईन बोर्ड पढ़ता वह सड़क पर आ गया।
इन्ही ढाबों के बगल में समोसे-जलेबियां खिलाने वाले नाश्ते की दुकानें हैं, जिनमें चाय भी मिलती है। फूस की दुकानें। बैठने के लिए बांस के फट्टों की तथाकथित बेंचें, जो आपके पैंट पर शायद ही रहम करें। इन्हीं दुकानों की पृष्ठभूमि में दिखता है एक पोखर। बडा-सा पोखर। फिर दुकानों की कतारों की बगल में दो-एक ट्रक खड़े थे। वह आगे बढ़ा।
दुकानों की गिनती अभी भी कम नहीं हुई थी और इसबार की दुकाने जूट और सीमेंट की बोरियों की थीं। जमीन पर बिछी बोरियां, जिनपर रखकर सामान बेचने की कोशिश की जा रही थी। कोई खिलौने बेच रहा था, कोई मकई के दाने भून रहा है। अभिजीत के दोस्त दिल्ली में इन्हें पॉपकॉर्न कहा करते, किसी मल्टीप्लेक्स में जाते तो कॉम्बो ऑफर में इन गंवई भुट्टों के भूंजे को कोक के साथ खाते।
अभिजीत अप्रैल में ऐसे गर्म मौसम में इस सुकूनबख्श हवा से तरोताजा होने लगा। पूरी भीड़ में वही एक था, जिनके पास शहरी कहने लायक कपड़े थे। ऐसा नहीं था कि बाकी लोगों के कपड़े कुछ बेहद देहाती किस्म के रहे हों, लेकिन अभिजीत के कपड़ो में एक सलीका था, जो उसे भीड़ से अलग कर रहा था।
भीड़ से अलग कर देने वाले इन कपड़ों से उसे कुछ याद आया।
पता नहीं क्यों उसे हर बात में मृगांका की याद क्यों हो आती है। मृगांका की एक सहेली थी। दफ्तर में जॉइन करते ही सहेली बनना भी लाजिमी ही थी। उस सहेली से नजर बचाकर कभी-कभी अभिजीत उसकी आंखों में झांकने की कोशिश कर लेता था।
अभिजीत के दिमाग़ में एक्सट्रीम क्लोज-अप में सिर्फ मृगांका थी। जो मुस्कुराती थी तो लगने लगता कि मोतियों की बारिश होनी शुरु हो गई है। जो उसे कभी अमलतास तो कभी कचनार जैसी लगती थी।
अभिजीत को वह दिन कभी नहीं भूलेगा जब मृगांका से उसकी बातचीत शुरु हुई थी। बातें न जाने कहां से शुरु हुई थीं, जो किताबों, मौसम, खबरों, ए राजा, सेंसेक्स से होती हुई कविताओं वगैरह पर खत्म हुई। अभिजीत बहुत खुश था। उसके खुश होने की कुछ खास वजहें हुआ करती थीं। आज तो उन सब वजहों के ऊपर एक नई वडह पैदा हुई थी...मृगांका।
अकेले में वह इस नाम को बार-बार दुहराता रहता। हमेशा बढ़ी हुई शेव में रहने वाले, तीन दिन तक एक ही शर्ट में दफ्तर में आने वाले अभिजीत को कुछ सतर्कता बरतनी पड़ी। दरअसल, उसका शेव किया जाना भी, उसके बाकी के सहयोगियों के लिए बड़ी खबर की तरह थी।
शेव बनाकर आए अभिजीत को देखकर पता नहीं क्यों, लेकिन मृगांका मुस्कुराई थी। ऐसी मुस्कुराहटों के कई अर्थ निकाले जाते हैं। अभिजीत ने अपने मतलब का अर्थ निकाल लिया था। वैसे पता तो आजतक नहीं चला है कि शेव बनाने की उसकी दुर्लभ आयोजन के बारे में मृगांका को किसीने पहले ही बताया था या नहीं।
पास
के वेटिंग रुम से खास किस्म की स्टेशनी गंध आ रही थी। शायद कल इधर भी बारिश हुई थी।
वेटिंग रुम में यहां-वहां पोटलियां पसरी थीं। मक्खियां भिनभिना रही थीं। औरतें आदतन गुलगपाडा मचा रही थीँ। कोई बूढा़ अपने फेफड़ों में जमा तकरीबन सारे बलगम को खांस-खांसकर वहीं सादर समर्पित किए दे रहा था। एक औरत अपने बच्चे को दुकान के आगे मचलते देखकर उसे थपड़ाने पर उतारू थी और गालियों से उसके खानदान का उद्धार किए दे रही थी।
मिथिला
का वह गंवई समाज अपने ठेठ अंदाज में उस मुसाफिरखाने में मौजूद था। कोई परिवार शाम
की चाय के साथ ठेकुआ या खुबौनी जैसे होममेड पकवान उड़ाने में व्यस्त था, तो कहीं सास
अपनी पोतहू के सात पुश्तों की कुंडली बांच रही थी। अभिजीत इऩ सारी बातों से असंपृक्त, असंबद्ध सा
लग रहा था।
पता नहीं क्या सोचते हुए वह दरभंगा स्टेशन की गंदी जगह से बाहर निकल गया। यहां एक शिलालेख होना चाहिए.. अगर कहीं नरक है तो यहीं है, यहीं है, यहीं है। उसने सोचा। अपनी हथेलियां रगड़ते हुए उसने सिगरेट सुलगा ली।
स्टेशन
के अहाते से बाहर निकलते ही सामने था सवारी के लिए आवाज़ लगाते मिनी बस वाले, जो राहगीरों
को तकरीबन बांह पकड़कर खींच लेने की जुगत में थे। शाम होते हुए भी भीड़ कम नहीं
हुई थी और सब जल्द-से-जल्द अपने ठौर-ठिकानों को भाग लेने की फिराक में थे।
बसें, मुसाफिरों को भरकर दनादन निकल रही थीं। यहां ‘दनादन’ शब्द का इस्तेमाल महज साहित्यिक संदर्भ में किया गया है। उम्मीद है कि पाठक इसका कत्तई बुरा न मानते हुए मुआफ़ करेंगे, क्योंकि इस सड़क की दशा महज प्राचीन काल में ऐसी रही होगी, जब उसपर गाडियां दनादन दौड़ सकती होंगी। वरना अभी तो सड़क कहीं बिला गई है और ऊबड़-खाबड़ ईंटों के ढेर पर बसें फुदकती-कुदकती चलती हैं। बहरहाल, उसी चिल्लपों और गुलगपाड़े से निकलता हुआ अभिजीत बस अड्डे को जाने के लिए तैयार हुआ।
अहाते के बाहर सड़की की दूसरी तरफ, कई होटलों (पढिए-ढाबों) के साईन बोर्ड, चाणक्य होटल, मिथिला होटल.. ऐसे ही नाम। कोई शुद्ध मांसाहार, कोई मिथिला का ठेठ माछ-भात खिलाने का दावा करता हुआ दिख रहा था तो किसी के इश्तिहार में शुद्ध बैष्णव ढाबा लिखा था। साईन बोर्ड पढ़ता वह सड़क पर आ गया।
इन्ही ढाबों के बगल में समोसे-जलेबियां खिलाने वाले नाश्ते की दुकानें हैं, जिनमें चाय भी मिलती है। फूस की दुकानें। बैठने के लिए बांस के फट्टों की तथाकथित बेंचें, जो आपके पैंट पर शायद ही रहम करें। इन्हीं दुकानों की पृष्ठभूमि में दिखता है एक पोखर। बडा-सा पोखर। फिर दुकानों की कतारों की बगल में दो-एक ट्रक खड़े थे। वह आगे बढ़ा।
दुकानों की गिनती अभी भी कम नहीं हुई थी और इसबार की दुकाने जूट और सीमेंट की बोरियों की थीं। जमीन पर बिछी बोरियां, जिनपर रखकर सामान बेचने की कोशिश की जा रही थी। कोई खिलौने बेच रहा था, कोई मकई के दाने भून रहा है। अभिजीत के दोस्त दिल्ली में इन्हें पॉपकॉर्न कहा करते, किसी मल्टीप्लेक्स में जाते तो कॉम्बो ऑफर में इन गंवई भुट्टों के भूंजे को कोक के साथ खाते।
...जारी
3 comments:
रोचक, अगली कड़ी की प्रतीक्षा में..
सही है.
गजब का चुम्बकीय आकर्षण है आपकी writings में ........................लाइन दर लाइन बदलते भाव उन्नत साहित्य का दुर्लभ लक्षण है ................ बहुत सुन्दर वर्णन .
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