Wednesday, May 16, 2012

सुनो! मृगांकाः मांग के खाइब, मसीत में सोईब

ही भाई बहन जिनके साथ बचपन के सबसे दुश्वार साथ गले से गले मिलकर रहे। अंधेरे से डरने वाली बहन जो महज ग्यारह साल की थी, मंझले भाई जो 9 साल के...अंधेरे से कभी नहीं डरा तो अभिजीत। अपने बड़े भाई बहनों को सहारा देने वाले अभिजीत के लिए अब इनके यहां कोई जगह नहीं।

डेस्टिनी।

दिल्ली की गाड़ी पकड़ी तो जेब में महज सौ रुपये का एक नोट था। तूफ़ान एक्सप्रेस आगरा होते हुए दिल्ली आती है। बस नाम ही तूफ़ान है...बाकी हवाओं वाली कोई बात नहीं। दिल्ली पहुंचने में कुल एक हजार किलोमीटर की दूरी तीन दिनों में तय करने वाली गाड़ी में अभिजीत के पास सोचने के लिए बहुत वक़्त था।

लेकिन सोचने से क्या होता है। सोचा कि मंझले भाई साब कुछ न कुछ इंतजाम करवा देंगे। इतने दिनों में कुछ न कुछ पैर तो जमा ही लिए होंगे भाई साब ने। वक़्त सोचने के लिए बहुत था। आसपास के यात्री कुछ ही देर में घुल मिल गए। चलते वक्त मां ने ढेर सारी पूरियां डाल दी थीं।

गले दो तीन स्टेशनों तक जंगल, झाड़ी, लाल मिट्टी सब अपनी ओर बुलाती रहीं। मानो वृंदावन वापस बुला रहो हो कृष्ण को...काहे का कृष्ण। वह तो सुदामा सरीखा जा रहा था...अपनी हेठी अपनी अकड़ के साथ। हेठी कुछ ऐसी कि टूट जाए लेकिन झुके ना।

दिल्ली पहुंचा तो इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ाई क़स्बे के स्कूल का अनुभव सा मालूम होने लगा। ट्रेन अल्लसुबह पुरानी दिल्ली स्टेशन पहुंची थी। जाड़ों की सुबह। दिल्ली की ठंड। भयानक कोहरा...सफेद चादर में लिपटी दिल्ली।

बस में  किसी तरह ठुंसकर भैया के घर तक पहुंचा था। ऐसी भीड़ भरी जगह...लोग इस मुहल्ले में सांस कैसे लेते हैं। अब तक इतनी कम जगह में इतने लोगों को कभी देखा नहीं था। घर पहुंचा तो भाभी को कोई खास खुशी नहीं हुई थी। घर भी छोटा...।

भैया ने पूछा था, 'कहां रहने का इरादा है?'

भिजीत को अब इससे आगे की घटनाओं का अंदाजा हो गया। लेकिन उसने भावनाओं पर जबर्दस्त नियंत्रण करना सीख लिया था। मुस्कुरा उठा। कहा, 'दो-तीन दिन में इंतजाम हो जाएगा।'

एक झटके में भाई के यहां से पत्ता साफ हो गया था। हालांकि उसने कभी भी भाई के यहां परजीवी होकर रहने की सोची तक न थी, यह उसकी योजनाओं में कहीं था भी नहीं। लेकिन उसे इतनी जल्दी की भी उम्मीद न थी कि आखिर भाई साब ऐसे फटाक-देनी से ऐसा सवाल पूछ देंगे।

सामान छोड़कर उसने नॉर्थ में कैम्प जाने का रास्ता पूछा। उसका एक बैचमेट उधर ही रहता था। विजयनगर की तरफ। तकरीबन दो घंटे बाद जब वह विजयनगर पहुंचा था तो दोस्त ने बड़ी गर्मजोशी दिखाई थी। भरोसा दिलाया और कई बातें बताईं जिसका लब्बोलुआब था कि हिम्मत रखो। पेशा बदलना चाहते हो तो कोई बात नहीं, जब तक रुकना हो मेरे पास रुको। 

अभी कोई बात नहीं जब पैसे कमाने लगना मेरे उधार चुकता करते जाना। अभिजीत गद्गद् हो उठा। पैसा कितना महत्वपूर्ण है।  इसी पैसे ने सुबह-सुबह भाई साब के मुंह से रिश्तों की पोल खुलवा दी, आज इसी पैसे की मदद की वजह से मुझे लग रहा है कि प्रशांत जैसा तो मेरे लिए कोई है ही नहीं।

उसकी आंखों में आंसू भर-से आए थे। आँखें धुंधली सी हो आईं।

अतीत फेड आउट होकर वर्तमान में फेड आउट हो गया। कुरसी पर टिके टिके ही सोचने लगा आखिर रिश्ते होते क्या हैं..जो हमें जन्म से मिलते हैं या जो हम खुद कमाते हैं बनाते हैं और जमा करते हैं?

...जारी

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

उस रास्ते से बस तूफान ही आगरा छूती है..