Monday, January 4, 2016

सतभाया का शेष


जलवायु परिवर्तन पर बहुत चर्चाएं हुआ करती हैं, लेकिन इसका हम पर और आप पर क्या असर होगा इसको समझना बेहद अहम है। आज मैं आपको एक ऐसे गांव का किस्सा सुनाना चाहता हूं जिसके बारे में पाठकों को जानना बेहद जरूरी है।

सतभाया एक पंचायत है, ओडिशा के केन्द्रपाड़ा जिले में। इस पंचायत में राजस्व रिकॉर्ड्स के मुताबिक डेढ़ दशक पहले तक सात गांव हुआ करते थे। सतभाया, गोविन्दपुरू, कानपुरू, शेकपुरू जैसे गांव थे जहां हर भारतीय गांव की तरह घरौंदो जैसे घर थे, नारियल के पेड़ थे, लोग थे। भीतरकनिका नैशनल पार्क और गहिरमाथा घड़ियाल रिज़र्व के भीतर बसा यह पंचायत समंदर के किनारे था। जी हां, था...क्योंकि अब इस पंचायत में महज डेढ़ गांव बचे हैं।

साढ़े पांच गांव समंदर की पेट में समा चुके हैं। जानकार इसकी वजह समुद्र के जलस्तर में आई बढ़ोत्तरी को बताते हैं। साल 1921 के राजस्व रिकॉर्ड बताते हैं कि सतभाय़ा पंचायत में करीब 1021 वर्ग किलोमीटर रकबा था, अब यह सौ वर्ग किलोमीटर से भी कम बचा है।

आप सतभाय़ा गांव जाएंगे तो समंदर में डूबे ट्यूब वैल की पाईप, स्कूल की डूबी हुई छत भी दिख सकती है। मैंने गांव के बुजुर्गों से बात की तो पता चला पंद्रह-सोलह साल पहले तक समंदर गांव से डेढ़ मील दूर था। लेकिन समंदर अब हर साल अस्सी मीटर आगे बढ़ जाता है।

सतभाया गांव और आगे बढ़ रहे विकराल समुद्र के बीच एक रेत की दीवार-सी है, जो गांव वालों की रक्षा कर रही है। बगल में कानपुरू है, जो आधा डूब चुका है। समंदर का पानी खेतों में घुसकर माटी को खारा बना चुका है। खेती चौपट हो गई है। घर-दुआर डूब चुके हैं। इन गांवों में रह रहे लोगों के बच्चों का ब्याह भी नहीं हो रहा।

हालांकि राज्य सरकार ने कई बार गांव में बचे लोगों को हटाने की कोशिश की है, लेकिन गांव के लोग मानने को तैयार नहीं है। इसकी दो वजहें हैं, विस्थापित पांच गांव के लोग केन्द्रपाड़ा हाइवे के किनारे रहने को मजबूर है, घर-बार तो छिना ही, रोजी-रोटी की दिक्कत भी है और स्थानीय लोगों के साथ सामाजिक संघर्ष भी है।

दूसरी वजह है कि सतभाया में एक प्राचीनकालीन पंचवाराही मंदिर है। गांव के लोगों की उनके साथ इस मंदिर को भी दूसरी जगह स्थापित कर दिया जाए। फिलहाल, योजना फाइलों में घूम रही है।

समंदर की बढ़त रोकने की कोई योजना भी सरकार के पास नहीं है। ओडिशा के पर्यावरणविदों का कहना है कि दुनिया के किसी हिस्से में हो रहे प्रदूषण से धरती का तापमान बढ़ रहा है और इसका फल भुगतना पड़ रहा है बेचारे गांववालों को, जिनकी इस ग्लोबल वॉर्मिंग में कोई हिस्सेदारी नहीं है। पर्यावरणविद् भागीरथ बेहरा कहते हैं कि यह भी तय नहीं किया जा सका है कि आखिर गहिरमाथा रिजर्व और भीतरकनिका नैशनल पार्क पर इसका क्या असर पड़ने वाला है।

बड़ा सवाल है कि आखिर ओडिशा में ही ऐसा क्यों हुआ। इसका भी जवाब हैः असल में विकास की अंधी दौड़ में समंदर के किनारे के मैंग्रोव के जंगल कटते चल गए। मैंग्रोव समुद्री किनारों के लिए प्राकृतिक तटबंध का काम करते हैं और वनस्पति का छाजन होने से अपरदन और कटाव जैसी घटनाएं कम होती हैं।

असल में एक कयास यह भी है कि समुद्री बढ़त का यह मामला किसी प्लेट टेक्टॉनिक गतिविधि यानी भूमि की स्थिति में हलचल होने से भी हुई हो सकती है। यह सब वैज्ञानिक बातें हैं और इसको पलटा नहीं जा सकता है। मेरी चिंता उन लोगों की है जो सड़को के किनारे रह रहे हैं। या उन गांववालों की, जो अपने बच्चों को वह प्रार्थना रटवाते हैं जिसमें कानपुरू और सतभाया के बच्चे ईश्वर से इस आपदा को टालने की गुहार करते नजर आते हैं। सतभाया के लोग गांव को अभी भी छाती से चिपटाए हैं, शायद इसलिए कि एक बार निकले तो पुरखों की यह भूमि उनको दोबारा नजर भी नहीं आएगी।

बच्चों की प्रार्थना में करूणा है। यह इलाका 1997 में महाचक्रवात भी झेल चुका है। इन बच्चों की तालीम और भविष्य की तो छोड़िए, इन्हें दो जून को रोटी की चिता ज्यादा बड़ी लग रही है।

रिपोर्टिंग करते समय रोना अच्छी बात नहीं। मैं अपनी पनियाई आंखों से अपनी पत्रकारिता में यह नुक्स झेल सकता हूं। उम्मीद है कि सतभाया के लोगों की आवाज़ ऊपर तक पहुंचेगी, उस ईश्वर तक, जिन से वो प्रार्थना कर रहे हैं। मुझे उस ऊपर तक आवाज़ पहुंचाने से ज्यादा दिलचस्पी है, जो कुरसी पर बैठक ईश्वर बने बैठे हैं और लाखों लोगों का भविष्य तय करते हैं।

2 comments:

निरंजन कुमार मिश्रा said...

'अफ़सोस और दुःख' के सिवाय हम कुछ कह भी नहीं सकते, विकास के कालचक्र में असमय ही समा रही मानवता की यह कहानी पढ़ कर... क्या फायदा इस तथाकथित आधुनिकता का जो विकास का हर पहलु अंततोगत्वा बर्बादी की गाथा में बदल जाता है...

निरंजन कुमार मिश्रा said...

'अफ़सोस और दुःख' के सिवाय हम कुछ कह भी नहीं सकते, विकास के कालचक्र में असमय ही समा रही मानवता की यह कहानी पढ़ कर... क्या फायदा इस तथाकथित आधुनिकता का जो विकास का हर पहलु अंततोगत्वा बर्बादी की गाथा में बदल जाता है...