हिंदी मुंबइया सिनेमा के पर्दे पर सबसे ‘मर्दाना चेहरा’ सिर्फ एक था, धर्मेंद्र. मधुपुर में हमलोग अपने साथियों में मांसपेशीय शक्ति की सबसे ज्यादा नुमाइश और शेखी बघारने वाले साथी को ‘बड़का आया धरमिन्दर’ कहकर बुलाते थे.
धर्मेंद्र सिनेमा के परदे पर मसल पावर के प्रतीक थे.
यह तुलना ऐं-वईं नहीं थी. धर्मेंद्र परदे पर किसी को पीटते थे तो उनकी आंखों में गुस्सा नहीं, आग दिखती थी और वाकई लगता था कि अगर उनका घूंसा किसी को लगा, तो बंदा हफ्तों के लिए बिस्तर पर पड़ जाएगा.
उनकी चाल में अदा नहीं, आत्मविश्वास था. और उनकी मुस्कान में वह सादगी, जिसने दर्शकों को यह भरोसा दिलाया कि यह आदमी जब लड़ेगा, तो सच के लिए लड़ेगा.
लेकिन धर्मेंद्र का यह एक्शन हीरो बनना सिर्फ कैमरे का खेल नहीं था. यह उनके जीवन का संघर्ष था, मिट्टी, मेहनत और मोहब्बत से बना हुआ. धर्मेंद्र यानी पंजाब की माटी की सुगंध.
जहां तक मुझे खयाल है, पहली बार शर्ट फाड़कर गुंडों की पिटाई धर्मेंद्र ने ही की थी, फूल और पत्थर थी फिल्म. और इसी फिल्म के साथ धर्मेंद्र दर्शकों के चहेते बन गए थे.

इस फिल्म में उन्होंने एक ऐसे बदमाश का किरदार निभाया, जो अंदर से नेकदिल है.
क्लाइमेक्स के उस सीन में, जिसका जिक्र मैंने किया है कि धर्मेंद्र शर्ट फाड़कर गुंडों को मारते हैं, सिनेमाघर सीटियों से गूंज उठता था. इसी फिल्म से पैदा हुए हीमैन.
असल में, इस समय तक परदे पर दांत पीसते और आंखों से गुस्सा बरपाते अमिताभ का आगाज नहीं हुआ था लेकिन एक्शन का दूसरा नाम धर्मेंद्र बन गए थे.
शोले का जिक्र तो जितनी बार किया जाए कम ही होगा. फिल्म का एक्शन उस समय के लिहाज से तकनीकी रूप से नया था, लेकिन धर्मेंद्र के स्टंट वास्तविक थे. उन्होंने ट्रेन के ऊपर से कूदने वाले दृश्य, और ठाकुर के साथ लड़ाई वाले सीन खुद किए. शोले में जय की मौत के बाद वीरू का दांत पीसकर, ‘गब्बर मैं आ रहा हूं’ कहना कौन भूल सकता है!
मनमोहन देसाई की 1977 की फिल्म धरम वीर एक फैंटेसी-एक्शन थी, जहाँ धर्मेंद्र ने ऐसे मध्यकाल के किसी योद्धा का किरदार निभाया था, जिसकी नकल करके आज भी कई हास्य कलाकारों की रोजी-रोटी चल रही है और जिसकी नकल फिल्म राजाबाबू में गोविन्दा ने भी की थी.
बहरहाल, धरमवीर में तलवारबाजी, घुड़सवारी और योद्धा वाली पोशाकों के बीच धर्मेंद्र का एक्शन पूरी तरह अलग था. उन्होंने अपने शरीर और चेहरे से जो जज्बात दिखाए, वह भारतीय सिनेमा में उस दौर की तकनीक से कहीं आगे थे.
उनका घोड़े पर कूदना, तलवार घुमाना और संवाद बोलते हुए अभिनय में ‘फिल्मीपन’ कम और फिजिकल रियलिज्म ज्यादा था.
1978 की शालीमार में धर्मेंद्र ने इंटरनेशनल स्टाइल में एक्शन किया. लड़कियों के लिए यह फिल्म उनकी ‘जेम्स बॉन्ड’ इमेज का प्रतीक बन गई. उनकी चाल, बॉडी लैंग्वेज और कैमरे पर पकड़—सबने उन्हें ग्लोबल एक्शन हीरो का लुक दिया.
1980 की राम बलराम में वे अमिताभ बच्चन के साथ थे. दो भाइयों की इस कहानी में धर्मेंद्र ने अमिताभ के बड़े भाई का किरदार निभाया, जिसमें उनका अनुभव और जोश दोनों दिखे.
यहां उनका हर फाइट सीन डांस की तरह तालमेल वाला था.
पर सबसे बड़ा एक्शन धर्मेंद्र ने पर्दे पर नहीं, अपने जीवन में किया. जब करियर शिखर पर था, तब आलोचना और निजी परेशानियों ने उन्हें तोड़ दिया. उन्होंने किसी इंटरव्यू में कहा था, ‘मैंने अपने दर्द को शराब में डुबोया, पर किसी को तकलीफ नहीं दी. मैं गिरा, मगर फिर उठा.’
धर्मेंद्र की यह स्वीकारोक्ति ही उनका सबसे बड़ा ‘एक्शन’ था. जहाँ एक हीरो खुद से लड़कर बाहर निकला.
आज जब हाई-टेक एक्शन, वायर वर्क और कंप्यूटर ग्राफिक्स फिल्मों में आम हैं, एआइ का इस्तेमाल असली को भी मात दे रहा है और वीएफएक्स ने सिनेमा के परदे को आश्चर्य लोक में बदल दिया है, धर्मेंद्र की पुरानी फिल्मों का एक्शन आज भी असली लगता है क्योंकि उसमें ईमानदारी थी.
धर्मेंद्र की पहचान सिर्फ एक्शन से नहीं, बल्कि उनके मानवीय स्पर्श से बनी. वह गुस्से में भी सज्जन थे, और लड़ाई में भी सच्चे. उनके स्टंट्स में हिंसा नहीं, इंसाफ की चाह थी. आज की पीढ़ी अगर धर्मेंद्र को ‘रेट्रो एक्शन स्टार’ कहती है, तो ये याद रखना चाहिए कि उन्होंने स्क्रीन पर वह किया था जो जिंदगी में हर किसी को करना पड़ता है- मुश्किल हालात से लड़कर मुस्कुराना.
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